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-५६] पञ्चमः परिच्छेदः
२३९ भीदुःखावेशचिन्ताभिः स्यान्मोहो मूर्छनं यथा । संप्रेक्ष्य दूतीश्चिरयत्यधीशे तदेन्दुपादैः प्रहता लताङ्गी । संप्रेषिता सान्तसखोव तं ताः संतजितु मूच्छितमूतिरासीत् ॥५३॥ मतिरर्थविनिर्णीतिस्तत्त्वमार्गानुसंधितः । प्रतापश्चक्रिणः सोऽयं वह्निरेव न संशयः । यत्प्रवेशनमात्रेण निर्दग्धा रिपुसंततिः ।।५४।। अलसत्वं तु कर्तव्ये या मन्दोद्यमता यथा समास्तां गृहव्याप्ती किंवदन्ती स्वकायोपचारेऽपि मन्दप्रयत्ना। पिकी पञ्चमोक्तिश्रुतिप्रेरिता सा बलात्कारतश्चक्रि कृत्ये प्रवृत्ता ॥५५।। तुल्यवर्तनमुन्मादश्चेतनाचेतनेष्वपि । चक्रयानकध्वनिभ्रान्ता मन्त्रयन्तेऽरयो द्रुमैः ।।५।।
मोह-भय, दुःख, घबराहट, चिन्ता इत्यादि कारणोंसे मूच्छित हो जाने या चित्तको विकलताको मोह कहते हैं। यथा-वापस लौटती हुई दूतियोंको देखकर तथा प्रियतमको विलम्ब करते हुए देख वह लतांगी चन्द्र किरणोंसे बहुत सन्तापित हुई और पुनः उन्हें बुलाने के लिए मानो अन्तिम बार दूतीको उनके पास भेजा और उन्हें भयभीत करने के लिए मूच्छित हो गयो ॥५३॥
मति-यथार्थ मार्गके अनुसन्धान इत्यादिके कारण किसी अर्थ-निर्णयको मति कहते हैं । मतिका वास्तविक अभिप्राय है वस्तुतत्त्वके निश्चयसे । इसके कारण नीतिमार्गके अनुसरण आदि हैं । इसके होनेपर मुसकराहट, धैर्य, सन्तोष और आत्मसम्मान आदि स्वभावतः हुआ करते हैं। यथा-वह यह चक्रवर्ती भरतका प्रताप अग्नि ही है, इसमें कोई संशय नहों; जिसके प्रताप-मात्रसे शत्रु-समूह जलकर भस्म हो जाता है ॥५४॥
आलस्य-सामर्थ्य होनेपर भी अवश्य करने योग्य कार्य में उत्साहहीनताको आलस्य कहते हैं। यथा-घरके कार्यो में उसकी शिकायत है; यहाँ तक कि उसके शारीरिक कार्यों में भी उसकी शिथिल प्रवृत्ति रहती है। कोयलके पंचम स्थरके सुननेसे प्रेरित वह बलपूर्वक चक्रवर्ती भरतके कार्यों में प्रवृत्त हुई ॥५५॥
उन्माद-काम, शोक, भय इत्यादिके कारण चेतन और अचेतनमें समान व्यवहारको उन्माद कहते हैं । यथा-चक्रवर्ती भरतके रणवाद्यको ध्वनिसे भ्रान्त शत्रु वृक्षोंके साथ परामर्श करते हैं ॥५६॥
१. लतांगि-ख । २. चित्तसखीव-ख । ३. खप्रतौ 'समास्तां' नास्ति ।
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