________________
२३५
-४२]
पञ्चमः परिच्छेदः अनिल ससुरभे त्वं मेऽतिसंशिक्षयाशु स्मर पदनतिमेत्यानेतुमाली गतेशम् ॥३८॥ 'क्रोधः कृतापराधेषु पुनः प्रज्वलनं यथा । रे धावन्तु विदिक्षु दिक्षु यदि नो विक्षिप्यतेऽन्त्रोत्करः श्रीकौक्षेयककुक्षिघोटनभवो भक्ष्येत पक्ष्यादिभिः । इत्याधुक्तिकठोरताप्रकटितक्रोधानिलाः सद्भराश्चक्रेशो दिषतोऽखिलास्तत इतः संकम्पयन्ति स्म ते ॥३९॥ ईर्ष्या सा स्यात् परोत्कर्षासहिष्णुत्वं स्फुटं यथा। तस्यां सर्वापि संपत्तिः किमत्रागम्यते सर ॥४०॥ स्वेदकम्मादिकृद्धर्षः प्रसादस्तूत्सवादितः । कृतार्थाद्य भवाम्यस्य संगस्योत्सवतोऽचिरात् ॥४१॥ तर्जनादिकृदुग्रत्वं चण्डतागसि वोक्षिते । खण्डिताधर गच्छेति तजितोऽस्याः पदे नतः ॥४२॥
करो। हे सुगन्धित मन्द-मन्दवाही पवन ! तुम मुझे अच्छी तरह गति सिखलाओ । हे कामदेव ! तुम पैरोंपर गिरने की मुझे शिक्षा दो । स्वामीको लाने के लिए गयी हुई मेरो सखो आ रही है ॥३८॥ ।
क्रोध-अपराध करनेवालोंपर पुनः पुनः प्रज्वलित होनेको क्रोध कहते हैं अर्यात् अपराधीके प्रति पुन:-पुनः रोष उत्पन्न करना क्रोध है। यथा--रे कायरो! दिशाओं
और विदिशाओंके कोनोंमें तब तक भागो, जब तक तुम्हारे आंतोंका समूह फाड़कर फेंक दिया नहीं जाता अथवा तलवारसे युक्त कुक्षिका काटा हुआ मांस इत्यादि पक्षियोंके द्वारा खा लिया नहीं जाता। इस प्रकार हे चक्रवर्तिन् ! कठोरतासे अपनी क्रोधाग्निको प्रकट करनेवाले सम्पूर्ण सैनिक शत्रुओंको इधर-उधर कपा रहे हैं ॥३९॥
ईर्ष्या-स्पष्टतः दूसरोंकी उन्नतिको असहनशीलताको ईर्ष्या कहते हैं। यथाप्रतिनायिकापर नायकके प्रेमको न सहन करती हुई कोई नायिका नायकसे कहती है कि सारी सम्पत्ति तो उसीके पास है, यहाँ क्यों आते हैं ? वहीं जाइए ॥४०॥
हर्ष-उत्सव इत्यादिके कारण पसीना निकलना और कंपा देनेवाली प्रसन्नताको हर्ष कहते हैं । यथा--आज इस मिलनके उत्सवके पश्चात् मैं कृतकृत्य हो रही हूँ ॥४१॥
उग्रता-अपराध जान लेनेपर ताड़नादि कार्यसे युक्त चण्डताको उग्रता कहते हैं । यथा हे कटे हुए ओठवाले ! यहाँसे भागो। इस प्रकार नायिकासे डराया हुआ नायक उसके पैरोंपर गिर गया ॥४२॥ १. स्मर पदनति मे स्या नेतु-ख। २. कोपः-ख । ३. मनः प्रज्वलनम्- ख । ४. -खप्रती स्म पदं नास्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org