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अलंकारचिन्तामणिः
[५१३५आत्मोत्कर्षोऽन्यधिक्काराद् गर्वः शौर्यबलादिजः। ममाग्रे नृपकीटानां स्थितिः केति जयोऽगदीत् ।।३५॥ निर्वेदोऽफलधीवुःखेातत्त्वप्रज्ञतादितः। दैन्यचिन्ताश्रुनिश्वासाः संभवन्त्यत्र तद् यथा ॥३६॥ कर्पूरेण कृतं हिमांशुकि रणैः किं चन्दनैः किं बिसैः पर्याप्तं मृगनाभिभिः किसलयैः किं मन्दवातैरलम् । हारेणालमलं कुशेशयदलश्रीतालवृन्तेन किं तं चक्रेश्वरमालिसर्वगुणिनं शीघ्रं त्वमाकारय ॥३७॥ कार्पण्यं स्यादनौद्धत्यं दैन्यं सत्त्वविमोचनम् । नद पिकवर मा मा कूज पारावत त्वम्
चिरय सदुदयाव्यन्तस्त्वमिन्दो सुवाहि । किंकर्तव्यविमूढ़ताको जाड्य कहते हैं । यथा-चक्रवर्ती भरतके आनेपर सन्तुष्ट नायिका स्वागत तथा उपचार न कर सकी, केवल टकटकी लगाकर देखती रह गयी ॥३४॥
___गर्व-दूसरोंको धिक्कारने-दूसरोंको अतितुच्छ समझने तथा अपने पराक्रम और बलसे उत्पन्न अपने उत्कर्षको गर्व कहते हैं । यथा-मेरे आगे कीटोंके समान अन्य राजाओंकी क्या मर्यादा है, इस प्रकार जयकुमारने कहा ॥३५॥
निवेद-दुःख, ईर्ष्या, तत्त्वज्ञान, प्रज्ञा इत्यादिसे अपने को व्यर्थ समझनेकी बुद्धिको निर्वेद कहते हैं । इस निर्वेदके होनेपर चिन्ता, दोनता, अश्रुपतन, दोघं निश्वास इत्यादि मनोविकार उत्पन्न होते हैं । यथा-॥३६॥
हे सखि ! कर्पूरको कोई आवश्यकता नहीं, चन्द्रमाकी किरणोंसे क्या ? चन्दनसे क्या ? बिस-कमलतन्तुओंको कोई आवश्यकता नहीं, नूतन रक्त आम्रपल्लवोंसे क्या ? मन्द पवनकी क्या आवश्यकता ? हार भी बिलकुल बेकार हैं, कमलके पत्तोंके पंखेकी क्या आवश्यकता है ? हे सखि ! तू सर्वगुणसम्पन्न उस चक्रवर्ती भरतको शीघ्र बुलाकर ला ॥३७॥ कार्पण्य और दैन्य
अनौद्धत्यको कार्पण्य और पराक्रमसे रहित होनेको दैन्य कहते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रसन्नताका न रहना कार्पण्य है और दुर्गति आदिके कारण उत्पन्न निस्तेजस्विताको दैन्य कहा जाता है। कार्पण्य में मुखपर प्रसन्नता नहीं रहती और दैन्य में मुखपर मलिनता रहती है । यथा-हे कोयल ! मत बोलो, मत कूजो । हे पारावत ! तुम ध्वनि मत करो। हे चन्द्रमा ! सुन्दर अभ्युदयसे युक्त जलके भीतर चिरकाल तक निवास
१. मौलि-ख ।
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