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२१८ अलंकारचिन्तामणिः
[४॥३३२यत्रोत्तरोत्तरोत्कर्षः सा सारालंकृतिर्यथातत्त्वे जीवोऽत्र भव्यस्त्रसपरिणमनोऽत्रापि पञ्चाक्षशंसो मोऽरोगो विवेको धनिक उरुकुलोऽत्रापि सग्यग्दगत्र । कारुण्याढ्यो व्रताढ्योऽत्र च सकलयमो धर्मसध्यानकोऽत्र शुक्लध्यान्यत्र कर्मक्षपक इह वरः केवली सिद्ध एव ॥३३२॥
विश्वलोकसारभूतं सिद्धपरमेष्ठिनं विषयीकुर्वतः सार इत्यस्यालंकारस्यान्वर्थसंज्ञा। इत्यर्थालंकारान् निरूप्येदानों संसृष्टिसंकरौ कथ्यते। यथा लौकिकानां कनकमयानां च पृथक्-पृथक् सौन्दर्यकराणामपि हाराद्यलंकाराणामन्योन्यसंबन्धेन रम्यता दृश्यते तथैव रूपकादीनामलंकाराणामन्योन्यसंबन्धेन रम्यतातिशयो गम्यते । तिलतण्डुलन्यायेन संयोगरूपः क्षीरनीर. न्यायेन समवायरूपश्चेति स च संबन्धो द्विधा। आद्येन न्यायेन संसष्टिरन्त्येन संकरः।
शुद्धिरेकप्रधानत्वमेकालंकारप्राधान्यरूपा स्यादिति शुद्धिमिच्छन्ति
सारालंकारका स्वरूप और उदाहरण
जहाँ उत्तरोत्तर उत्कर्षको प्रतीति हो, वहाँ सारालंकार होता है । यथा
इस संसारमें भव्यजीव, उनमें भी मुक्तिप्रद पंचनमस्कारमन्त्रका पाठी, मनुष्य होनेपर भी नीरोग, विवेकशोल, धनिक, उत्तमकुल, उसमें भी सम्यग्दृष्टि, महान दयालु, व्रती, उसमें भी समस्त व्रत-नियमोंका पालक, उनमें धर्मका अनुसन्धान करनेवाला, उनमें भी कर्मविनाशक शुक्लध्यानी और श्रेष्ठ केवलज्ञानी सिद्ध ही हैं ।।३३२॥
सम्पूर्ण लोकमें सारभूत सिद्धपरमेष्ठीको प्रत्यक्ष करना ही लोगोंके लिए 'सार' है, यह इस अलंकारकी अन्वर्थ संज्ञा है।
अब अर्थालंकारोंको निरूपित करनेके उपरान्त संसृष्टि और संकर अलंकारोंको कहते हैं । जिस प्रकार लोकमें होनेवाले सुवर्णमय तथा भिन्न-भिन्न अंगोंको शोभा बढ़ानेवाले 'हार' इत्यादि आभूषणोंके परस्पर सम्बन्धसे रम्यता देखी जाती है, उसी प्रकार रूपक आदि अलंकारोंके परस्पर सम्बन्धसे अतिशय रम्यता प्रतीत होती है । यह सम्बन्ध दो प्रकारका है-(१) तिलतण्डुल न्यायसे संयोग स्वरूप, (२) और क्षीरनीर न्यायसे समवाय स्वरूप। तिल-तण्डुल न्यायसे जहाँ अलंकारोंको पृथक्-पृथक् प्रतीति हो, वहां संसृष्टि और क्षीर-नीर-दूध-पानी न्यायसे अलंकारोंकी अपृथक् रूपसे प्रतीति हो, वहाँ संकर अलंकार होता है।
प्रधानरूपसे एक अलंकारका रहना शुद्धि है, अतः शुद्धि अभीष्ट है, संसृष्टि
१. पञ्चाक्षसंज्ञो-क-ख । २. कनकमयानां मणिमयानां च-ख । ३. क्षीरन्यायेन-ख ।
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