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२२६ अलंकारचिन्तामणिः
[५।४कारिणश्चेतसि प्रज्वलनं क्रोधः । कार्येषु लोकोत्कृष्टेषु स्थिरतरप्रयत्न उत्साहः। रौद्रविलोकनादिना अनर्थाशङ्कनं भयम् । अर्थानां दोषविलोकनादिभिगीं जुगुप्सा। अपूर्ववस्तुदर्शनादिना चित्तविस्तारो विस्मयः । विरागत्वादिना निर्विकारमनस्त्वं शमः।
शृङ्गारादिरसत्वेन स्थायिनो भावयन्ति ये । ते विभावानुभावौ द्वौ सात्त्विकव्यभिचारिणी ॥४॥ नाटकादिषु काव्यादौ पश्यतां शृण्वतां रसान् ।
विभावयेद् विभावश्चौलम्बनोद्दीपनाद् द्विधा ।।५।। दुःखके उत्कर्षको शोक कहते हैं । शत्रुओंके द्वारा किये हुए अपकारवालेके चित्तमें होनेवाले दाहविशेषको क्रोध, सांसारिक उत्कृष्ट कार्यों में किये जानेवाले अत्यन्त सुस्थिर प्रयासको उत्साह, भयंकर वस्तुओंके दर्शन इत्यादिसे अनर्थको आशंकाको भय, वस्तुओं के दोषावलोकन आदिसे उत्पन्न घृणाको जुगुप्सा, विलक्षण वस्तुओंके देखने इत्यादिसे उत्पन्न चित्तविस्तारको विस्मय एवं वैराग्य आदिके कारण मनको निर्विकारताको शम कहते हैं।
__ जो स्थायी भावोंको शृंगार आदि रसोंके रूप में भावित करते हैं, अर्थात् आस्वादगोचर बनाते हैं, वे दो हैं--(१) विभाव और अनुभाव, (२) सात्त्विक और व्यभिचारी ॥४॥ • भाव, ज्ञान और क्रियाके बीचकी स्थिति है। यह एक प्रकारका विकार है। कोई विकार स्वयं उत्पन्न नहीं होता और न सहजमें उसका नाश होता है। एक विकार दूसरे विकारों को उत्पन्न करता है। जो व्यक्ति, पदार्थ वा बाह्य परिवर्तन या विकार मानसिक भावोंको उत्पन्न करते हैं उनको विभाव कहते हैं और जो शारीरिक विकार क्रियाके प्रारम्भिक रूप होते हैं उन्हें अनुभाव कहते हैं । स्थायीभाव, संचारीभाव, विभाव और अनुभाव ये चारों ही रसके अंग हैं।
सात्त्विकभाव और संचारीभाव प्रायः एक हैं। कई अलंकारशास्त्रियोंने सात्त्विकभावकी गणना संचारियोंके अन्तर्गत की है। सात्त्विकभावका अर्थ है कि जिनकी उत्पत्ति सत्त्व अर्थात् शरीरसे हो, वे सात्त्विकभाव हैं। इनकी संख्या आठ होती है। विभावका स्वरूप
नाटक इत्यादिके देखनेवालों तथा काव्य आदिके सुननेवालों के चित्त में स्थित रति आदि को जो आस्वादोत्पत्तिके योग्य बनाते हैं, उन्हें विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार हैं-आलम्बन और उद्दीपन ।।५।।
१. विलोकनादिभिः-ख । २. चालम्बनोद्दीपनो-ख ।
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