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'श्रीवीतरागाय नमः
पञ्चमः परिच्छेदः क्षयोपशमने ज्ञानावृतिवीर्यान्तराययोः । इन्द्रियानिन्द्रियैर्जीवे त्विन्द्रियज्ञानमुद्भवेत् ॥१॥ तेन संवेद्यमानो यो मोहनीयसमुद्भवः । रसाभिव्यञ्जकः स्थायिभावश्चिद्वृत्तिपर्ययः ।।२।।
समवेदन या इन्द्रियज्ञानका स्वरूप
ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमके होनेपर इन्द्रिय और मनके द्वारा प्राणीको इन्द्रियज्ञान उत्पन्न होता है ॥१॥ स्थायीभावका स्वरूप
___ इन्द्रियज्ञानसे संवेद्यमान, मोहनीय कर्मसे उत्पन्न, रसकी अभिव्यक्ति करनेवाला जो चिद्वृत्तिरूप पर्याय है, उसे स्थायीभाव कहते हैं ॥२॥
तात्पर्य यह है कि रसकी अभिव्यक्ति एक अलौकिक व्यापार है। जैनदर्शन, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनके द्वारा होनेवाले ज्ञानको इन्द्रियजन्य ज्ञान मानता है और यह इन्द्रियजन्य ज्ञान मोहनीय कर्मके उदय होनेपर चित्तको विशेष वृत्तिरूप परिणमन करता है। इसो चित्तवृत्तिको स्थायीभाव कहा गया है। यह स्थायीभाव रसका अभिव्यंजक है । वर्तमान मनोविज्ञान तीन प्रकारके अनुभव मानता है-(१) संवेदनात्मक (२) भावात्मक और (३) संकल्पात्मक । इन तीनोंको अँगरेजोमें क्रमशः Sensation, Feelings and conation कहते हैं । पुस्तक सामने है। यहाँ पुस्तकको स्थितिमात्रका अनुभव संवेदन है। जैनदर्शनकी दृष्टि से यही इन्द्रियज्ञान है। व्यक्तिका ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम जिस कोटिका होगा उसी कोटिका यह ज्ञान भो स्पष्ट, स्पष्टतर और स्पष्टतम होगा। यदि वह पुस्तक स्वयं मेरे द्वारा लिखी गयी है तथा समाचार पत्रों में उसकी सुन्दर आलोचना प्रकाशित है तो उस आलोचनाके देखने से जो गौरव तथा हर्षका अनुभव होगा वह भाव या फीलिंग कहलायेगा। यदि वह पुस्तक ऐसे व्यक्तिके द्वारा लिखी गयी है जिसके प्रति मुझे घृणा है और उस पुस्तकके द्वारा उसने अनुचित ख्याति पायो है तो उस पुस्तकको देखकर जो घृणाका अनुभव होगा वह भी एक प्रकारका भाव है। वस्तुतः
१. खप्रती वृषभजिनाय नमः ।
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