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२२२ अलंकारचिन्तामणिः
[४॥३४२श्रीमत्पार्थिवचन्द्रेण मुखपद्मेषु भूभुजाम् । किं भवेदिति तत्कान्ताश्चिन्तयन्ति स्म चेतसि ॥३४२।।
पार्थिवचन्द्रेण मुखपद्मेष्वित्यत्र 'रूपकोपमयोस् संशयादिति संदेहसंकरः। पार्थिव एव चन्द्रः चन्द्र इव पार्थिव: "मुखान्येव पद्मानि पद्मानि मुखानीव इति समासद्वयसंभवात् स चात्र साधकं बाधक वा प्रमाणम् अन्यतरस्य नास्तीति संदेह एव पर्यवसितः। साधकबाधकयोः सत्त्वे तु संदेहनिवृत्तिः ।
श्रीयशः पण्डरीकाणि भरतस्यादिचक्रिणः। शेखरोचक्रिरे विश्वदिक्पाला अपि तोषतः ॥३४३॥
यशांस्येव पुण्डरोकाणीति रूपकालंकारे शेखरीचक्रिरे इति साधकप्रमाणम् । शेखरीकरणेन अभेदनिश्चयात् ।
शूरे रथाङ्गभृत्सिंहे षटखण्डेषु विराजति ।
तद्विषत्कुञ्जरा भीता नाकलोकमशिश्रयन् ।।३४४।। है । ये दोनों उपमा और श्लेष 'भानुमान्' इस एक ही शब्दमें प्रविष्ट हैं, अतः एक वाचकमें अनुप्रवेशसे यहाँ संकर अलंकार है।
अति सुन्दर पार्थिव हो चन्द्र है अथवा चन्द्रके समान राजा है; राजाओंके मुखकमलों में क्या है, इस प्रकार उनकी स्त्रियाँ अपने मनमें सोचने लगीं ॥३४२।।
'पार्थिवचन्द्र' से 'मुखकमल' में रूपक और उपमाका संशय होनेसे यहाँ सन्देह संकर है । पार्थिव ही चन्द्र है अथवा चन्द्र के समान पार्थिव है; मुख ही कमल है अथवा कमल मुखके समान है, इस प्रकार यहाँ दोनों समास हो सकते हैं। अतः दोनोंमें साधक या बाधक प्रमाण न होनेसे सन्देहमें ही पर्यवसान होता है। साधक या बाधकके रहनेपर तो सन्देहकी निवृत्ति हो जाती है ।
आदिचक्री भरतके यशरूपो कमलको सभी दिग्गजोंने बड़े ही सन्तोषसे अपने मस्तकका आभूषण बनाया ॥३४३॥
यहां यश ही कमल है, इस रूपकालंकारमें 'शेखरीचक्रिरे' यह साधक प्रमाण है । शेखरीकरणसे अभेदका निश्चय हो जाता है ।
खट्खण्डोंमें भरतके सिंहरूपी वीरोंके सुशोभित रहनेपर डरे हुए उनके शत्रुरूपी हाथी स्वर्ग चले गये ॥३४४।।
१. रूपकोपमेययोः-ख। २. पार्थिवचन्द्रः चन्द्र इव....-ख । ३. मुखान्येव पद्मानि, पद्मान्येव मुखानि इति समास....-ख । ४. न चात्र-ख । ५. अन्यतरस्यास्तीति-ख ।
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