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चतुर्थः परिच्छेदः
उद्दिष्टा यैः क्रमैरर्थाः 'पूर्वं पश्चाच्च तैः क्रमः । निरूप्यन्ते तु यत्रैतद् यथासंख्यमुदाहृतम् ॥ २७९ ॥ चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे भक स्तुति विनतिमञ्जलिमञ्जसैव । चेक्रयते चरिकरोति चरीकरीति । यश्चर्करीति तव देव स एव धन्यः ॥ २८० ॥ यत्र कस्यचिदर्थस्य निष्पत्तावन्यदापतेत् । वस्तु के मुत्य संन्यायादर्थापत्तिरियं यथा ॥ २८१||
यत्रेकस्य वस्तुनो भावे तत्समानन्यायेन किमुतेत्यादिनार्थान्तरमापति
-२८२ ]
सार्थापत्तिः ।
यात्रामात्रेण चक्रय योः प्रणता मागधादयः । सुरेशाः कम्पितात्मानः किमन्ये नृपमानिनः ॥ २८२ ॥
यथासंख्य अलंकारका स्वरूप
पहले जिनक्रमोंसे अर्थ कहे गये हों, पीछे भी उन्हीं क्रमोंसे उनको कहा जाये, तो वहाँ यथासंख्य नामक अलंकार होता है | ॥ २७९ ॥
यथासंख्यका उदाहरण
हे जिनेश्वर, जो मनुष्य अपने मन, मुख, मस्तक और दोनों हस्तकमलों में भक्ति, स्तुति, नम्रता और अंजलिबन्धन को बार-बार करता है, पुनः पुनः स्तुति करता है, सिर झुकाता है और हाथ जोड़ता है, वही धन्य है ॥२८० ॥
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अर्थापत्ति अलंकारका स्वरूप -
जहाँ किसी अर्थ की निष्पत्ति में कैमुत्य न्यायसे अन्य कोई दूसरी वस्तु आ पड़े, उसे अर्थापति कहते हैं । इस अलंकार में एक अर्थके आधारपर दूसरे अर्थका आक्षेप होता है ॥२८१ ॥
जहाँ एक वस्तुकी सत्ता में उसीके समान न्यायसे या 'किमुत' इत्यादिसे दूसरा अर्थ आ पड़े उसे अर्यापत्ति कहते हैं ।
अर्थापत्तिका उदाहरण -
केवल दिग्विजय यात्रा से मगध इत्यादि देशके राजा चक्रवर्ती के चरणों में झुक गये, सुरेश --- इन्द्र भी काँप उठे । नृपमान्य - अपनेको राजा माननेवाले झूठे दम्भी राजाओं का कहना ही क्या है || २८२ ॥
१. पूर्वपश्चाच्च - ख । २. यत्रैकस्यविद... - ख । ३. सन्यायाद.... - ख ।
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