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अलंकारचिन्तामणिः
[ ४।२७७
जिनपदाश्रयेण तिर्यग्जीवो मुनीयत इति विशेषेण अधीरपि सुधीः स्यादिति सामान्यं समर्थ्यते । इति विशेषात्सामान्यसमर्थनम् ।
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कण्ठस्थः कालकूटोऽपि शम्भोः किमपि नाकरोत् ॥ सोऽपि दन्दह्यते स्त्रीभिः स्त्रियो हि विषमं विषम् ॥ २७७॥
अत्र स्त्रियो हीति विशेषात् स्त्रीभिरिति विशेष- समर्थनमिति विशेषाद्विशेषसमर्थनं च ज्ञेयम् । अथवा सामान्याद्विशेषसमर्थनमेव स्त्रियो हीति सर्वस्त्रीसामान्येन गिरिजादिस्त्रीविशेषस्य दाहकत्वसमर्थनात् । कार्यकारणभावेन
यथा
भक्ता भवन्तु भो जीवा न निर्भक्ता जिनेश्वरे । सोऽभक्तसमभावोऽपि भक्तान् भाग्यं नयत्यरम् || २७८||
'भक्तिकार्येण भाग्यनयनेन भक्तत्वं कारणं समर्थितम् । कारणात् कार्यसमर्थनं तु काव्यलिङ्गेऽन्तर्भूतमिति नोक्तमतोऽर्थान्तरन्यासस्य त्रयो भेदाः ।
जिनेश्वर के चरणों का आश्रय लेनेसे तिर्यंच भी मुनिके समान आचरण करते हैं, इस विशेष कथनसे मूर्ख भी विद्वान् हो जाते हैं, इस सामान्यकथनका समर्थन किया गया है । अतः यह विशेषसे सामान्य के कथनका उदाहरण है ।
विशेषसे विशेषका कथन रूप अर्थान्तरन्यासका उदाहरण
कण्ठ में विद्यमान विष भी शंकरजीका कुछ भी करने में समर्थ नहीं हुआ, वे ही स्त्रियों से अत्यन्त पीडित होते हैं । अतः स्त्रियाँ अत्यन्त हलाहल हैं || २७७॥
यहाँ स्त्रियाँ भयंकर विष हैं, इस विशेष कथनसे स्त्रियोंसे पीड़ित इस विशेषका समर्थन किया गया है । अतः विशेषसे विशेषके समर्थनका उदाहरण है । अथवा सामान्यसे विशेषका भी समर्थन होता है । यतः सर्वस्त्री सामान्य से पार्वती आदि विशेष स्त्री में दाहकत्वका समर्थन किया गया है ।
कार्यकारणभाव अर्थान्तरन्यासका उदाहरण
हे भव्य जीवो ! जिनेश्वर के भक्त बनो, उनके अभक्त भी हो सकते हैं, क्योंकि वे अभक्त में भी समता रखनेवाले हैं । पर उनके भक्त ही सौभाग्यको प्राप्त होते हैं ॥२७८॥
भक्ति कार्य भाग्य प्राप्ति में भक्तित्वरूप कारणका समर्थन किया गया है। कारणसे कार्यका समर्थन होने से काव्यलिंग है, पर यहाँ कार्य में कारणका समर्थ न होनेसे अर्थान्तरन्यास है ।
१. भक्तकार्येण भाग्यनयने भक्तत्वम् - ख |
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