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चतुर्थः परिच्छेदः नमः सिद्धेभ्य इत्येवं शुभा पञ्चाक्षरावलो। बिभ्रतो हृदि यां भव्या लोकाग्रपदमाश्रिताः ॥२७३।।
काव्यार्थगतो हेतुरयम् । ससामान्यविशेषत्वात् कार्यकारणभावतः। प्रकृतं यत्समर्थतार्थान्तर्व्यसनं मतम् ।।२७४।।
सामान्य विशेषभावेन कार्यकारणभावेन च प्रकृतस्य समर्थनं यत्र सोऽर्थान्तरन्यासः । सामान्यादविशेषसमर्थनं यथा
पलायमाना निधिपारिभूपा, भीताश्च चञ्चापुरुषेभ्य आरात् । . अचेतनेभ्योऽपि तथाहि सर्वमन्तभयानां भयमातनोति ॥२७५।।
अन्तःकरणे चकितानां सर्वं भयं करोतीति सामान्यं तृणकृतनरेभ्यो भीता इति विशेष समर्थयति ।
महापुरुषसंसर्गादधीरपि सुधी भवेत् । पुरुदेवपदाश्रित्या तिर्यग्जीवो मुनीयते ॥२७६।।
'नमः सिद्धेभ्य' इस सुन्दर पांच अक्षरवाले मन्त्रको हृदयमें धारण करते हुए भव्य जीवोंने संसारके सबसे बड़े पद मुक्तिको प्राप्त कर लिया ॥२७३॥
यहां वाक्यार्थ में हेतु है ।। अर्थान्तरन्यासका स्वरूप
___सामान्य-विशेषभाव या कार्य-कारणभावसे जहाँ प्रकृतका समर्थन किया जाय वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है ॥२७४॥
सामान्य-विशेषभाव या कार्य-कारण भावसे प्रकृतका समर्थन किया जाना, अर्थान्तरन्यास अलंकार है । सामान्य से विशेषका समर्थनरूप अर्थान्तरन्यासका उदाहरण
___ भागते हुए चक्रवर्ती भरतके शत्रु राजा समीपमें रहे हुए जड़ तथा पशुओंको डरानेके लिए बनाये हुए तृणमय पुरुषाकृति से भी डरते हैं; भीतरसे भयाक्रान्त मानवको सभी वस्तुएं भयदायिनी प्रतीत होती हैं ॥२७५॥
अन्तःकरणमें भयान्वितोंके लिए सब कुछ भयप्रद होता है, इस सामान्य कथनसे तृणमय पुरुषसे भयभीत होनेपर विशेषका समर्थन किया गया है । विशेष द्वारा सामान्यसमर्थन रूप अर्थान्तरन्यासका उदाहरण
महापुरुषके संसर्गसे मूर्ख भी विद्वान् हो जाता है। पुरुदेवके चरणोंका आश्रय लेने से तिर्यंच भी मुनिके समान आचरण करते हैं ॥२७६।।
१. इत्येषा -ख । २. वाक्यार्थगतो -क-ख । ३. मतम् इत्यस्य स्थाने, खप्रती ततः । ४. समर्थयते -ख ।
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