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चतुर्थः परिच्छेदः शत्रूद्यानमहापक्वफल तृप्ताः क्षुधार्तयः । चक्रिसेनाचरा युद्धे शान्ताः शौर्यादिशालिनः ॥२६६।।
रिपुपुरोद्यानपक्वफेलानुभवेन चक्रिसेनाचरकृतेन कार्येण रणप्रारम्भे एव स्वपुराणि त्यक्त्वा पलायिता रिपव इति कारणं गम्यते ।।
आक्षिप्तिरूपमानस्य कैमर्थक्यान्निगद्यते । तस्योपनेयता यत्र तत्प्रतीपं द्विधा यथा ॥२६७।।
"लोकोत्तरस्योपमेयस्योपमानाक्षेपो यत्र तदेकम्। यत्रचोपमानस्योपमेयत्वकल्पना तद्वितीयमिति प्रतीपं द्विधा यथा ।
त्रिलोकी द्योतयत्येतां जिनेशे दिव्यभाषया । निर्लज्जः किमुदेत्येष सहस्रकिरणोऽधुना ॥२६८।। शुभाणुपुञ्ज एवैष त्रिजगत्यपि दुर्लभः । अल्पज्ञैः कथमेतेन हेमाद्रिरुपमीयते ।।२६९।।
क्षुधापीड़ित, अत्यन्त वीर भरत चक्रवर्तीके सैनिक शत्रूद्यानमें बड़े-बड़े पके हुए फलोंको प्राप्त कर शान्त हो गये ।।२६६॥
रिपुके नगर के उद्यानके पके फलोंके खानेसे सन्तुष्ट चक्रवर्तीको सैनिकोंके द्वारा किये हुए कार्योंसे युद्ध के प्रारम्भमें ही शत्रुगण अपने नगरको छोड़कर भाग गये, इस कारणकी प्रतीति हो रही है। प्रतीप अलंकारका स्वरूप और उसके भेद
जहाँ 'किम्', 'उत' इत्यादि शब्दोंके अर्थसे उपमानका आक्षेप होता है अथवा उपमानको ही अनादराधिक्यके कारण उपमेय बनाया जाता है, वहाँ प्रतीपालंकार होता है । इस अलंकारके दो भेद हैं ॥२६७॥
अलौकिक उपमेयसे जहां उपमानका आक्षेप होता है; एक वह प्रतीप अलंकार है और जहाँ उपमानकी उपमेयत्वरूपसे कल्पना की जाती है, दूसरा यह प्रतीप है। इस प्रकार प्रतीप अलंकारके दो भेद हैं। प्रथम प्रतीपका उदाहरण
दिव्य प्रकाशके द्वारा जिनेशके इस त्रिलोकको प्रकाशित करते रहनेपर भी लज्जाविहीन यह सूर्य अब क्यों उदित होता है ॥२६८।। द्वितीय प्रतीपका उदाहरण
तीनों लोकोंमें अलभ्य यह कल्याणप्रद तीर्थंकरका औदारिक शरीर ही है, अल्पज्ञोंके द्वारा सुमेरुके साथ इसकी उपमा क्यों दी जाती है ॥२६९॥
३. तस्योपमेयता -क-ख ।
१. फलानुभवनेन -ख। २. आक्षिप्ते....-ख। ४. लोकोत्तरत्वादुपमेयस्यो....-ख ।
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