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अलंकारचिन्तामणिः
[४।३१५कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्रयत्यग्रे पाहि पाहीति सूक्तयः ॥३१५॥ अत्र विजिगीषोक्तिदैन्योक्तीनां एकाधारे 'अनेकेषां क्रमेण प्रवृत्तिः। लक्ष्मीः पद्माकरस्था जडगहमिदमित्याश्रिता चन्द्रमत्र स्थित्वा दोषाकरोऽयं त्विति च पुनरतः संश्रिता मेरुमत्र । स्थित्वा गर्वोन्नतोऽयं भवति पुनरिति प्राप्य तस्मान्निधीशं तस्य श्रीवेक्षसीद्धे स्थिरतरमहसि स्थैर्यभागात्तदृष्टिः ॥३१६।। एकस्याः लक्ष्म्याः सरःप्रभत्यनेकत्र क्रमेण प्रवर्तनम् । विदग्धमात्रबोध्यस्य वस्तुनो यत्र भासनम् । कायाकारङ्गिताभ्यां हि सा सूक्ष्मालंकृतियथा ॥३१७॥ सुभद्रा नवसंसर्गे प्रिये क्षुतवति द्रुतम् । ईषदुद्भिन्नबिम्बोष्ठी स्वकर्णस्पर्शनं व्यधात् ॥३१८॥
उदाहरण
कुवादियों-मिथ्यादृष्टियोंकी उक्तियां अपनी प्रियतमाओंके समक्ष पौरुषयुक्त और आचार्य समन्तभद्रके समक्ष 'रक्षा करो-रक्षा करो' इस प्रकारकी होती है ॥३१५॥
यहाँ विजिगीषा और दैन्यकथन रूप अनेक आधेय एक ही आधारमें हैं, अतः प्रथम पर्याय अलंकार है।
कमलसमूहसे युक्त सरोवररूपी गृहमें रहती हुई लक्ष्मीने उसे जड़गृह मानकर चन्द्रमामें आश्रय लिया । अनन्तर उसे दोषाकर समझ वह वहाँसे हटकर मेरुपर्वतपर चली गयी । पश्चात् मेरुको गर्वोन्नत समझ वहाँसे हटकर वह चक्रवर्तीके पास आयी। यहाँ आकर उनके प्रदीप्त सुस्थिर तेजवाले वक्षःस्थलपर उन्होंकी ओर ताकती हुई स्थिरताको प्राप्त हो गयी ॥३१६॥
यहाँ एक ही लक्ष्मीकी सरोवर आदि अनेक आधारों में क्रमशः स्थिति बतलायो गयी है, अतः द्वितीय पर्याय है। सूक्ष्म अलंकारका स्वरूप
जहाँ आकार अथवा चेष्टासे पहचाना हुआ सूक्ष्म पदार्थ ( अर्थ ) भी किसी चातुर्यपूर्ण संकेतसे सहृदयवेद्य बनाया जाये, वहाँ सूक्ष्म अलंकार होता है ।।३१७॥ उदाहरण
चक्री भरतकी पत्नी सुभद्राने प्रियतमके प्रथम संसर्गके अवसरपर छींक देने के कारण थोड़ा खुले-खुले अधर पुटवाली होती हुई कानका स्पर्श किया ॥३१८॥
१. नैकषाम्-ख । २. श्रीवक्षसिद्धे-ख । ३. वर्तनम् -ख ।
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