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-२५६ ] चतुर्थः परिच्छेदः
१९५ अनिष्टमाज्ञाविमुखत्वं तद्विधीयते स विधिरनुपपद्यमान आभासे पर्यवसितः । संपातप्रकारोऽभ्यस्यते इति रिपुस्त्रीवाण्या विध्याभास एवोक्तः ।
उक्तिर्यत्र प्रतीतिर्वा प्रतिषेधस्य जायते । आचक्षते तमाक्षेपमलंकारं बुधा यथा ।।२५३।। 'अलं दम्भोलिना चक्र यद्ययोध्यापुरी यदि । किं तयाप्यमरावत्या 'किमिन्द्रेणापि चेन्निधीट् ॥२५४॥ यद्यस्त्यरण्यवासित्ववाञ्छा भो भूमिपालकाः । भवन्तु भरताधीशमहाज्ञाविमुखाश्चिरम् ॥२५५॥ लक्षणमिदमुक्तेऽन्तर्भवति । निन्दास्तुतिमुखाभ्यां तु स्तुतिनिन्दे प्रतीतिगे। यत्र द्वेधा निगद्येत व्याजस्तुतिरियं यथा ॥२५६॥
आज्ञा विमुखत्वरूप अनिष्ट कार्यका विधान करते हैं। अतः यह विधि अनुपपद्यमान होते हुए आभासके रूप में परिणत हो गयी है। सम्पात प्रकारका अभ्यास किया जाता है, अतएव यह शत्रुनारीकी वाणीका विध्याभास ही कहा गया है । अन्याचार्यद्वारा प्रणीत आक्षेपका लक्षण
जिस अलंकारमें प्रतिषेध-कथन अथवा प्रतिषेध-प्रतीति होती है, उसे बुद्धि मान् लोग 'आक्षेपालंकार' कहते हैं ॥२५३।। उदाहरण
यदि चक्र है तो वज्रसे क्या प्रयोजन; यदि अयोध्यापुरी है तो उस अमरावतोसे क्या कार्य; यदि चक्रवर्ती भरत हैं, तो इन्द्रसे क्या ? ॥२५४॥
हे राजाओ, यदि बहुत दिनोंतक वनमें रहने की इच्छा है, तो भरत चक्रवर्तीको आज्ञासे विमुख हो जाइए अर्थात् उनको आज्ञा मत मानिए ॥२५५॥
यह लक्षण पूर्वोक्त लक्षणमें अन्तर्भूत हो जाता है । व्याजस्तुति अलंकारका लक्षण और भेद
जहां निन्दाके द्वारा प्रशंसाकी प्रतीति होती है अथवा जहाँ स्तुतिसे निन्दाकी प्रतीति होती है, वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं--(१) निन्दासे स्तुति और (२) स्तुतिसे निन्दाको प्रतीति ।।२५६॥
१. अलं दम्भोलिका चक्रम्-ख । २. किमिन्द्रेणास्ति चेन्निधीट् क-ख ।
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