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अलंकारचिन्तामणिः
[४।२५७निन्दामुखेन स्तुतिरेव यत्र प्रतीयते सा एका । स्तुतिमुखेन निन्दैव गम्यते यत्र सा द्वितीया व्याजस्तुतिरिति 'द्विधा क्रमेणोच्यते
सर्वजीवदयाधारः पुरुस्त्वं गीयसे कथम् । येन ध्यानासिना.घातिवैरिवृन्दं विदारितम् ।।२५७॥ तव स्याद्वादिनो देव द्विषः साहसिका अहो । दविष्टाधोवनीः सर्वा निःसहायाः प्रयान्त्यरम् ।।२५८।। गम्यप्रस्तुतेरप्रस्तुतप्रशंसा कथ्यतेप्रकृतं यत्र गम्येताप्रकृतस्य निरूपणात् । अप्रस्तुतप्रशंसा सा सारूप्यादेरनेकधा ॥२५९।।
सारूप्यात् सामान्यविशेषाभावात् कार्यकारणभावाच्च प्रस्तुतप्रतीतिरप्रस्तुतकथनादित्यनेन समासोक्तिव्यवच्छेदः । न च कार्यादेः कारणादिप्रतीतावनु
प्रथम व्याजस्तुतिका उदाहरण
हे पुरुदेव, तुम समस्त प्राणियोंके दयाके आधार हो, इस रूपमें आपकी प्रशंसा . कैसे की जाय; क्योंकि आपने ध्यानरूपी तलवारके द्वारा घातिया कर्मरूपी शत्रुओंको विदीर्ण कर दिया है ॥२५७॥
___ यहाँ निन्दासे स्तुतिको प्रतीति हो रही है। द्वितीय व्याजस्तुतिका उदाहरण
हे देव, तुम स्याद्वादीके शत्रु बड़े साहसी हैं, जो विना किसीको सहायताके बहुत दूर नीचेको पृथिवीपर-नरकमें शीघ्र चले जाते हैं ॥२५८।।
यहाँ शत्रओंकी प्रशंसाके रूपमें निन्दा की गयी है।
अब प्रसंग प्राप्त प्रस्तुत अर्थके प्रतीयमान होनेपर अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकारको कहते हैं। अप्रस्तुत प्रशंसाका स्वरूप
जहां अप्रासंगिकके निरूपणसे प्रासंगिक अर्थकी प्रतीति होती है, वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार होता है और यह सारूप्य इत्यादिके भेदसे अनेक प्रकारका है ॥२५९॥
सारूप्य, सामान्य विशेषभाव और कार्य-कारणभावसे अप्रस्तुतके कथनसे प्रस्तुतकी प्रतीति होती है । इस कथनके द्वारा समासोक्तिसे भिन्नता दिखायी गयो है ।
१. निन्दामुखेन इत्यस्य पूर्वं खप्रती निन्दास्तुतिस्तुतिनिन्दाभ्यां व्याजस्तुतिः द्विधा । २. खप्रती द्विधा इति पदं नास्ति । ३. साहसिता -ख ।
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