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-१०४ ] चतुर्थः परिच्छेदः
१४३ अतिरोहितरूपस्य व्यारोपविषयस्य यत् । उपरजकमारोप्यं रूपकं तदिहोच्यते ॥१०४॥
मुखं चन्द्र इत्यादी मुखमारोपस्य विषयः आरोप्यश्चन्द्रः अतिरोहितरूपस्येत्यनेन विषयस्य संदिह्यमानत्वेन तिरोहितरूपस्य संदेहस्य, भ्रान्त्या विषयतिरोधानरूपस्य भ्रान्तिमतः अपह्नवेनारोपविषयतिरोधानरूपस्यापह्नवस्यापि च निरासः। व्यारोपविषयस्येत्यनेनोत्प्रेक्षादेरध्यवसायगर्भस्योपमादीनामनारोपहेतुकानां व्यावृत्तिः। उपरञ्जकमित्येतेन परिणामालङ्कारनिरासः । तत्र प्रकृतो. पयोगित्वेनारोप्यमाणस्यान्वयो न प्रकृतोपरञ्जकतया । विलक्षणमिदमितः सर्वेभ्यः सादृश्यमूलेभ्यः । तत्तु सावयवं निरवयवं परम्परितमिति त्रिधा । सावयवं पुद्विधा समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवति चेति । निरवयवं च केवलं मालारूपं चेति द्विधा । परम्परितमपि श्लिष्टाश्लिष्टहेतुत्वेन द्विधा ॥ तवयमपि केवलमालारूपत्वेन चतुर्विधमित्यष्टविधं रूपकम् । यत्र सामस्त्येनावयवानामवयविनश्च निरूपणं तत्समस्तवस्तुविषयं यथा
रूपकालंकारकी परिभाषा और उसकी व्यवस्था
जहाँ प्रत्यक्ष अतिरोहित आरोपके विषयका आरोग्य विषय उपरंजक होता है, वहां रूपक अलंकार माना जाता है ॥१०४॥
आशय यह है कि जब प्रस्तुत या उपमेयपर अप्रस्तुत या उपमानका आरोप होता है, तब रूपक अलंकार होता है। यह आरोप दो प्रकारसे सम्भव है-(१) अभेदताके द्वारा और (२) तद्रूपताके द्वारा। इसी आधारपर रूपकके दो भेद हैं-(१) अभेद रूपक, (२) तद्रूपरूपक ।
___ "मुखम् चन्द्रः" इत्यादि उदाहरणमें आरोपका विषय है मुख और आरोप्य है चन्द्रमा । 'अतिरोहित रूप' इस विशेषणका सन्निवेश होनेसे, विषयके सन्दिह्यमान होने के कारण तिरोहित रूप विषयवाले सन्देहालंकार भ्रान्तिके कारण विषयके तिरोधानवाले भ्रान्तिमानलंकार, अपह्नवसे आरोप विषयके तिरोधानके कारण अपह्नव अलंकारोंमें रूपकका लक्षण नहीं जायेगा।
___ "व्यारोपविषयस्य" इस पदके उपादानके कारण अध्यवसायगर्भ उत्प्रेक्षा आदि अलंकारोंको एवं अनारोपहेतुक उपमादि अलंकारोंकी व्यावृत्ति हुई है।
___"उपरंजकम्” इस पदके सन्निविष्ट होनेसे रूपकका यह लक्षण परिणामालंकारके लक्षणसे व्यावृत होता है। क्योंकि परिणामालंकार में प्रकृतका उपयोगी होनेसे आरोप्यमाणका अन्वय होता है, न कि प्रकृतके उपरंजक होने के कारण । अतएव सादृश्यमूलक अन्य सभी अलंकारोंसे रूपक अलंकार भिन्न है। रूपकके तीन भेद हैं--(१) सावयव (२)
१. मुखचन्द्र इत्यादौ-ख। २. अपह्नवेनारोप-ख ।
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