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चतुर्थः परिच्छेदः लोचनोत्पलमास्यं ते स्मितचन्द्रार्कमुज्ज्वलम् । इत्येतयोरयुक्तत्वादयुक्त रूपकं मतम् ॥११९॥ चलन्नेत्रद्विरेफ ते स्मितपुष्पोच्चयं मुखम् । इति 'पुष्पालिना योगाद्युक्तरूपकमिष्यते ॥१२०।। कामदत्वेन कल्पद्रुगिरिधैर्येण सौम्यतः । त्वमिन्दुरिति हेतूक्तेर्हेतुरूपकमिष्यते ॥१२१॥ नैतदास्यमयं चन्द्रो नाक्षिणी भ्रमराविमौ । इत्यपह्नवपूर्वत्वात् तत्त्वापह्न तिरूपकम् ॥१२२।। सुभ्रूवल्ली नटो वक्त्रपद्मरङ्ग तव प्रिये । सलीलं नटतीत्येतन्मतं रूपकरूपकम् ॥१२३॥
अयुक्तरूपक
ईषद् हास्यरूपी चन्द्रकिरणवाला उज्ज्वल तुम्हारा मुख नयनकमल है । इन सादृश्योंके अनुचित होनेके कारण इस रूपकको अयुक्तरूपक कहते हैं ॥११९॥ युक्तरूपक
___ चंचलनेत्ररूपी भ्रमरवाला तुम्हारा मुख ईषद् हास्यरूपी विकाससे युक्त कुसुमसमूह ही है। इस प्रकार पुष्पस्थित भ्रमरके सम्बन्धसे इस रूपकका नाम युक्तरूपक है ॥१२०॥ हेतुरूपक
तुम मनोरथोंके पूरक होनेसे कल्पवृक्ष, धैर्य से युक्त होनेके कारण पर्वत, और सुन्दरताके कारण चन्द्रमा हो। इस प्रकार हेतुके प्रतिपादनके कारण इसे हेतुरूपक कहते हैं ॥१२१॥ तत्त्वाप तिरूपक
यह मुख नहीं, किन्तु यह चन्द्रमा है, ये दोनों नयन नहीं किन्तु दोनों भ्रमर हैं । इस प्रकार यहाँ अपह्नव होने के कारण इसे तत्त्वापह्नति रूपक कहा गया है ॥१२२॥
रूपक-रूपक
हे प्रिये ! तुम्हारे मुखरूपी रंगभूमिपर सुन्दर भ्रूलतारूपी नटी लीलापूर्वक नृत्य कर रही है । इसे रूपक-रूपक माना गया है ॥१२३॥
२. साम्यतः -ख ।
३. नैतदास्यसमम्....चन्द्रो साक्षिणी
१. पुष्पालिनाम् -ख । .... -ख ।
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