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अलंकारचिन्तामणिः
[४।२०७धुर्य चक्रिणि षट्खण्डभारं वहति भूभुजि । राजानः शमितात्मानो बभूवुर्नतमौलयः ॥२०७।।
भारमन्यस्मिन्निधोशे बिभ्रति सति तदन्येषु रिपुषु नमनमिति । विरोधप्रस्तुतेविचित्रमुच्यते
स्वविरुद्धफलाप्त्यर्थमुद्योगो यत्र तन्यते । विचित्रालंकृति प्राहुस्तां विचित्रविदो यथा ॥२०८॥ पुरोरग्रे'त्रिलोकेशा मुमुचुः संपदोऽखिलाः । सुनिधिनमादातुमखिलाः संपदोऽनिशम् ।।२०९॥
तात्पर्य यह है कि असंगतिमें कारण और कार्य भिन्न-भिन्न आश्रयोंमें वर्णित होते हैं। लोकप्रसिद्ध संगति यही है कि जहाँ 'कारण' रहता है, 'कार्य' भो वहीं उत्पन्न होता है; पर यदि कवि लोकातिक्रान्त प्रतिभा द्वारा कारण और कार्यका स्थान भिन्न-भिन्न बताये, तो उसमें उत्पन्न काव्य-वैचित्र्य हो असंगति कहा जाता है । असंगति अलंकारका उदाहरण
भार ढोनेमें समर्थ चक्रवर्ती भरतके षट्खण्डभूमिके भारको ढोते रहनेपर अपने को शान्त कर देनेवाले राजाओंने मस्तक झुका लिया ॥२०७॥
यहां भार ढोना और मस्तक झुकाना, इस कारण कार्यको एकाश्रयमें रहना चाहिए था, पर उसका एकाश्रयमें वर्णन नहीं है। भार चक्रवर्ती ढोते हैं और मस्तक अन्य राजा झुकाते हैं, अतः कारण-कार्यकी भिन्न-भिन्न स्थिति होनेसे असंगति अलंकार है।
विरोधके प्रस्तुत होनेपर विचित्र अलंकार होता है। अब प्रसंगप्राप्त विचित्र अलंकारके स्वरूपका वर्णन करते हैं । विचित्रालंकारका लक्षण--
जिसमें अपने अनभिमत फलकी प्राप्तिके लिए विस्तृतरूपसे उद्योग किया जाय, उसे विचित्र बातोंके जानकार विद्वान् विचित्रालंकार कहते हैं ॥२०८॥
आशय यह है कि इसमें इष्टफलकी प्राप्तिके लिए विपरीत कार्यके किये जानेका वर्णन रहता है। विचित्रालंकारका उदाहरण
सभी देवगण बाधारहित सम्पूर्ण सम्पत्तिको प्राप्त करनेके लिए निरन्तर अपनो सम्पत्तिको पुरु महाराजके समक्ष रख देते थे ॥२०९।।
१. त्रिलोकोशा -ख।
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