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चतुर्थः परिच्छेदः अत्र गम्यमानौपम्यप्रस्तावान्निदर्शनेष्यते । 'उपमानोपमेयस्थौ यत्र धर्मावसंभवी । संयोज्याक्षिप्यते बिम्बक्रिया द्वेधा निदर्शना ॥२३६।।
उपमानोपमेयधर्मयोरुपमेयोपमानाभ्यामन्वयाभावादन्वयसंबन्धार्थं प्रतिबिम्बकरणमाक्षिप्यते यत्र सा निदर्शना द्विधा। उपमानधर्मस्य निबद्धस्योपमेयगतत्वेनासंभवात् प्रथमा। उपमेयधर्मस्योपमानगतत्वेनासंभवा द्वितीया। सा क्रमेणोच्यते।
सुमनोनिलयस्तुङ्गो भूभृदीशो निधीश्वरः। रत्नसानोरभिख्यां स धत्ते विश्वंभराभृतः ॥२३७।।
मेरोः शोभायाश्चक्रिण्यसंभवात्तदभिख्यां सदृशशोभां धरतीति प्रतिबिम्बक्रियाक्षेपः।
अब प्रतीयमान उपमानोपमेयका प्रकरण रहने से निदर्शनाका विचार प्रस्तुत करते हैं। निदर्शनालंकारका स्वरूप और भेद
जहाँ उपमान और उपमेयमें रहनेवाला धर्म सर्वथा असम्भव हो, वहाँ अन्वय करनेके लिए संयुक्तकर बिम्बक्रिया ( औपम्य ) का आक्षेप किया जाये, उसे निदर्शना कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) उपमानका उपमेयगतत्वेन असम्भवा और (२) उपमेयका उपमानगतत्वेन असम्भवा ।।२३६॥
उपमान और उपमेय धर्मोंका उपमान तथा उपमेयके साथ अन्वय न हो सकनेके कारण अन्वय सम्बन्ध करनेके लिए प्रतिबिम्ब करणका आक्षेप किया जाता है उसे निदर्शना कहते हैं। यह दो प्रकार को है—(१) कवि निबद्ध उपमान धर्मक उपमेयगतत्वेन असम्भव होनेसे (२) उपमेय धर्मका उपमानगतत्वेन असम्भव होने से।
उदाहरण
राजाधिराज चक्रवर्ती भरत देवताओंके निवास स्थान उन्नत सुमेरु पर्वतके समान हैं । यह सुमेरु पर्वत रत्न शिखरकी संज्ञाको धारण करता है और यह भरत पृथ्वीपालकको अभिख्याको धारण करता है। निधीश्वर पक्षमें सुमनसःका अर्थ विद्वान् है ॥२३७॥
सुमेरुकी शोभा चक्रवर्ती में असम्भव है, अतएव 'तदभिख्याम'-समान शोभाको संज्ञाको धारण करता है । इस तरह प्रतिबिम्ब क्रियाका आक्षेप हुआ है ।
१. उपमानोपमेयस्था -ख । २. उपमानोपमेयाभ्यामन्वया....-ख ।
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