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अलंकारचिन्तामणिः
[४॥२३४वृक्षाश्चूतादयः श्रीफलकुसुममुखैः स्वाश्रितात्मोपकारं केचित् कुर्वन्तु कोऽपि स्फुटतरमहिमा कल्पवृक्षस्य दातुः । सर्वाभीष्टस्य भूषाविभववितरणं कुर्वतां चक्रपाणे
र्जीवाजीवोरुरत्नप्रवरनिधिभृतः कोऽपि संपद्विशेषः।।२३४॥ कल्पशाखिनश्चक्रिणश्च बिम्बप्रतिबिम्बभावादौपम्यं गम्यते । पुरुभाषोदयेनैव जाताः सम्यक्त्वसंपदः।।
तावदब्जानि निद्रान्ति यावन्नोदेति भास्करः ॥२३५।। - यथा भानूदयमात्रेण पद्मोन्मीलनं तथा पुरुजिनदिव्यध्वन्युदयमात्रेण सम्यक्त्वानि जातानि भव्यानामिति वैधhण बिम्बप्रतिबिम्बभावः । वाक्यार्थयोरमुद्रानिष्पादितयोर्वस्तुनोरिव स्फुटे सादृश्ये प्रतिवस्तूपमा। बिम्बप्रतिबिम्बयोरिव 'किंचिदस्फुटे तु दृष्टान्तः । न हि बिम्बप्रतिबिम्बयोः स्फुटतरं सादृश्यं नियमेन परस्परविरुद्धदिङ्मुखत्वात् ।।
प्रतिबिम्बस्य हानोपादानयोग्यताविरहाच्च । उदाहरण
कोई आम्र आदि वृक्ष अपने सुन्दर फल और फूल इत्यादिसे अपनी छायामें रहनेवालोंका उपकार भले ही करें, किन्तु सम्पूर्ण अभिमत वस्तुके प्रदान करनेवाले कल्पवृक्षकी महिमा स्पष्ट है । केवल अलंकार और सम्पत्तिके देनेवालों और जीव-अजीव सभी के लिए अत्यधिक सुन्दर रत्नादि विधिको धारण करनेवाले चक्रवर्तीकी सम्पत्तिमें कोई विलक्षण विशेषता है ॥२३४॥
यहाँ कल्पवृक्ष और चक्रोका बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होनेसे उपमानोपमेय भाव प्रतीत होता है।
पुरुदेवकी दिव्यध्वनिके उदय होते ही सम्यक्त्व आदि सम्पत्तियाँ हो गयीं, यतः तभीतक कमलोंका विकास नहीं होता, जबतक सूर्य उदित नहीं होते। जैसे सूर्योदय होने पर कमल विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार पुरुदेवकी दिव्यध्वनिसे सम्यक्त्वादि सम्पत्ति हो जाती है ॥२३५।।
जिस प्रकार सूर्योदयसे कमलोंका विकास होता है, उसी प्रकार पुरुदेवकी दिव्यध्वनिके उदयसे भव्यजीवोंको सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है। इस प्रकार यहाँ वैधर्म्य द्वारा बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है । दो वाक्यार्थोंमें अमुद्र और अनिष्पादित वस्तुओंके समान सादृश्यके सुस्पष्ट रहनेपर प्रतिवस्तूपमालंकार होता है। बिम्ब और प्रतिबिम्बके समान सादृश्यके कुछ अस्पष्ट रहनेपर दृष्टान्तालंकार होता है। परस्पर विरुद्धदिशामें मुख रहने के कारण बिम्ब-प्रतिबिम्ब उतना सुस्पष्ट सादृश्य नियमतः नहीं होता है। प्रतिबिम्बमें त्याग और स्वीकारकी योग्यताका अभाव भी रहता है।
१. भूपा -ख। २. किञ्चित्स्फुटे -ख ।
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