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अलंकारचिन्तामणिः
[ ४।२१९
इन्द्रादीनामप्रस्तुतत्वम् । निःसारतां गता इति 'समानधर्मः । अत्र गम्यमानौपम्यं वैवक्षिकं न वास्तवमिति कश्चित् । स न कविः । वन्ध्यासुतो निःसारतां गत इत्यपि वक्तु ं शक्यत्वप्रसङ्गात् । इयमपि तुल्ययोगिता । नाकस्येन्द्रः सुजागत रक्षणाय भुवो निधीट् । निरस्यन्तेऽसुरास्तेन राजानोऽनेन गर्विताः ॥२१९॥ तथा चोक्तं
उपमेयं समीकतुमुपमानेन युज्यते । तुल्यैककालक्रियया यत्र सा तुल्ययोगिता || २२०|| तमसा लुप्यमानानां लोकेऽस्मिन् साधुवर्त्मनाम् । प्रकाशनाय प्रभुता भानोस्तव च दृश्यते ॥२२१।। सामस्त्ये प्रस्तुतान्येषां तुल्यधर्मात्प्रतीयते । औपम्यं दीपकं तत्स्यादादिमध्यान्ततस्त्रिधा ||२२२ ||
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इन्द्रादि यहाँ अप्रस्तुत हैं । निस्सारताको प्राप्त हुए, यह समानधर्मा है । यहाँ प्रतीयमान उपमानोपमेय भाव विवक्षाधीन है, वास्तविक नहीं है, ऐसा किसीका मत है । किन्तु वस्तुतः वह कवि नहीं है, क्योंकि उक्त तथ्य स्वीकार कर लेनेपर बन्ध्याका पुत्र निस्सारताको प्राप्त हुआ, यह भी कहा जाने लगेगा ।
अन्य उदाहरण---
इन्द्र स्वर्गकी और चक्रवर्ती भरत पृथिवीको रक्षा करनेके लिए सावधान हैं । इन्द्र असुरोंको और यह घमण्डी राजाओं को दूर भगाता है ।। २१९॥ अन्य द्वारा कथित प्रकारान्तरसे तुल्ययोगिताका लक्षण और उदाहरण
जिस अलंकार में एक ही कालमें होनेवाली क्रियाके द्वारा उपमानके साथ उपमेयका समभाव स्थापित किया जाय, उसे 'तुल्ययोगिता' कहते हैं ॥ २२० ॥
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इस संसार में अन्धकार अथवा मोहसे आच्छादित सन्मार्ग किंवा सदाचारको प्रकाशित करनेके लिए भगवान् सूर्य और आपका प्रताप ही दिखलाई देता है || २२१ ॥ यहाँ प्रस्तुत राजा और अप्रस्तुत सूर्य एक समयमें एक ही क्रियाका अनुष्ठान कर रहे हैं, अतः तुल्ययोगिता नामक अलंकार है ।
दीपक अलंकारका स्वरूप और भेद
जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत पदार्थों में एक धर्मका अभिसम्बन्ध होनेसे उपमानोपमेयभाव प्रतीत होता है, वहाँ आदि, मध्य और अन्तदीपकके भेदसे तीन प्रकारका दीपक अलंकार होता है ॥२२२॥
१. तुल्यधर्मः - ख । २. इति वक्तुमपि शक्यत्वात् ख ।
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