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-२०१ ] चतुर्थः परिच्छेवः
. १७७ अत्र भयभ्रान्तानामरीणां सर्वत्र पुरोभागे पश्चाद्भागे पार्श्वयोरपि गृहस्य बहिरन्तर्वा धृतखड्गभरतेशदर्शनाद् धावनमिति एकोऽपि चक्री अनेकः प्रतीयते ।
अशक्यवस्तुनिष्पत्तिविशेषालंकृतिर्यथा । चक्रिदृष्टः सुरेन्द्रोऽपि कृतार्थः किं जनः परः ॥२०॥
चक्रिणः कृपाकोमलदृष्टिनिरीक्षितः शक्रोऽपि कृतार्थः । साधारणजनस्तत्प्रसाददृष्टः किन्न प्राप्नोतोति अशक्यवस्त्वन्तरकरणम् ।
आधाराधेयवैचित्र्येणाधिकालंकृतियथा । यत्र नास्त्यनुरूपत्वमाधाराधेययोर्मता ॥२०१॥
अधिकालंकृतिढेधा साधाराल्पबहुत्वतः । ऊवधिोमध्यभेदत्रिभुवनभरिता कीर्तिरादीशसूनोः स्वैरक्रोडां विधातु निकुचिततनुका गूढमूर्त्या प्रवृत्ता।
यहां भयसे भ्रान्त शत्रुओंको सभी जगह आगे, पीछे, अगल, बगल, घरके बाहर, भीतर, तलवार धारण किये हुए भरतके दिखाई पड़नेसे दौड़नेरूप कार्यका वर्णन होनेसे द्वितीय विशेष अलंकार है । एक भरतचों अनेकरूपमें प्रतीत हो रहा है । अतः वे सर्वत्र भाग रहे हैं। तृतीय विशेषका स्वरूप एवं उदाहरण:
___ जिसमें अशक्य वस्तुको उत्पत्तिका वर्णन हो, उसे तृतीय विशेषालंकार कहते हैं । यथा-चक्रवर्ती भरतके द्वारा कृपापूर्वक देखे हुए इन्द्र भी कृतार्थ हो सकते हैं, तब साधारण मनुष्योंके कृतार्थ होने की बात ही क्या है ॥२०॥
चक्रवर्तीकी कृपापूर्ण कोमलदृष्टिसे अवलोकित इन्द्र भी कृतार्थ हैं। साधारण मनुष्य उनकी प्रसन्न दृष्टि से देखे जाने पर क्या नहीं प्राप्त कर लेते हैं, इस प्रकार अशक्य अन्य वस्तुका वर्णन है। अधिक अलंकारका स्वरूप और भेद
जिसमें आधार और आधेयकी विचित्रताके कारण आधार तथा आधेयमें अनुरूपता न हो, वहाँ अधिक अलंकार होता है। आधारके अल्प और बहुत्वके कारण उसके दो भेद होते हैं ॥२०१॥ आधेयकी बहुलताका उदाहरण
ऊर्ध्व, पाताल और मध्यलोक भेदवाले तीनों भुवनों में व्याप्त, विक्रियाऋद्धि प्राप्त आदीश्वरके पुत्र भरतकी कीर्ति उनके शरीरसे स्वच्छन्दतापूर्वक क्रीडा करने लगी,
१. दृष्टिवीक्षितः-ख । २. तत्प्रासाददृष्टः -ख । ३. रुच्यते -ख । ४. अधिकालंकृति द्वे इत्यस्य अनन्तरम् २०२ श्लोकपर्यन्तं भागो नास्ति-ख। अत्राधारस्य इत्यारभ्य विद्यते-ख ।
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