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अलंकारचिन्तामणिः
[ ४॥१३१निश्चयगर्भा यथाश्रीचन्द्रः किमिदं मलीमसमसौ धत्त कलंकं पुनः। श्रीपञ किमिदं दिवैव 'विचकं बोभाति चैतत्पुनः ॥ कि प्रद्युम्नकरस्थदर्पणमिदं सोऽपि स्थितो नीरसः । इत्येवं सुविकल्पितं प्रियवधूवक्त्रं सखीभिः प्रेभोः ॥१३१॥ निश्चयान्ता यथाएते शारदचन्द्रनिर्मलकराः किं श्रीहृदः शद्धयः । किं पीयूषरयाः सुरद्रुमलसत्पुष्पस्रजः किं पुरोः । किं कारुण्यरसा इति स्वकहृदि व्यामृश्य सन्तश्चिरम् । व्याहारा जिनशिक्षका इति विभोनिश्चिन्वते स्म स्फुटम् ॥१३२॥ पिहितात्मनि चारोपविषये सदशत्वतः।।
आरोप्यानुभवो यत्र भ्रान्तिमान् स मतो यथा ॥१३३।। निश्चयगर्मा सन्देहालंकृतिका उदाहरण
क्या वह शोभा-सम्पन्न चन्द्रमा है ? नहीं, क्योंकि चन्द्रमा अपने भीतर काले कलंकको धारण करता है। क्या यह सुन्दर कमल है ? नहीं, क्योंकि कमल दिनमें ही विकसित होता है। क्या यह प्रद्युम्नके हाथमें स्थित दर्पण है ? नहीं, क्योंकि वह भी नीरस है।
इस प्रकार सखियोंके द्वारा महाराजकी प्रियाओंके मुखके विषय में विकल्प किया गया है ॥१३१॥ निश्चयान्ता सन्देहालंकृतिका उदाहरण
ये शरद् ऋतुके चन्द्रमाकी स्वच्छ किरणें हैं क्या ? ये स्वच्छ हृदयकी शुद्धियाँ हैं क्या ? क्या ये अमृतकी धाराएँ हैं ? क्या पुरुदेवकी कल्पवृक्षके सुन्दर पुष्पोंसे निर्मित मालाएँ हैं ? क्या कारुण्यरसके प्रवाह हैं ? इस प्रकार अपने हृदयमें बहुत समय तक सोचनेके अनन्तर सज्जनोंने यह स्पष्ट निश्चय किया कि जैनमतको शिक्षा देनेवाली सर्वव्यापक परमज्ञानी भगवान ऋषभदेवकी ये उक्तियाँ हैं ॥१३२॥
यहाँ सन्देहालंकार निश्चयान्त है। आरम्भमें जो सन्देह उत्पन्न हुआ, उसका अन्त में निराकरण हो जाता है और निश्चय होता है । भ्रान्तिमान् अलंकारका स्वरूप
जहाँ विहित-आच्छादित आरोप विषयमें सादृश्यके कारण आरोप्यका अनुभव होता है, वहाँ भ्रान्तिमान् अलंकार होता है ॥१३३॥
१. विकचं बोभोति -ख । २. भो.-ख । ३. जन -क । Jain Education International
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