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१६८ . अलंकारचिन्तामणिः
[४१७३अङ्गना प्रावृडारम्भे वनक्रीडापरायणा । घनाघनध्वनेर्भीताऽऽलिलिङ्गात्मपति दृढम् ॥१७३।। हुंभारवं वितन्वानाः कुर्वाणा वल्गनं गवाम् । पुरो वत्सास्सुपृष्ठाङ्गा गोकुले भान्ति चारवः ॥१७४।। यत्र प्रकाशितं वस्तु साम्यगर्भवतः पुनः । 'कुतोऽपिच्छाद्यते व्याजात् सा व्याजोक्तिरितीष्यते ॥१७५।। श्रीभूमिपाणिग्रहकालजातरोमाञ्चवृन्दे सति चक्रयुदात्तः। राजाऽभिषिक्ताम्बुकणवजः किं कर्तव्य इत्यैक्षत मन्त्रिवर्गम् ॥१७६॥
उदाहरण
वनक्रीडामें तत्पर, वर्षा ऋतुके प्रारम्भ हो जानेपर मेघ गर्जनसे भयभीत किसी रमणीने अपने पतिका दृढ़तापूर्वक गाढालिंगन किया ॥१७३॥
यहाँ रमणीके स्वभावका चित्रण होनेसे स्वभावोक्ति है ।
हुंकार करते और गायोंके आगे सुन्दर ढंगसे चलते हुए मजबूत अंगबाले सुन्दर बछड़े गोकुल में शोभित हो रहे हैं ॥१७४॥
यहां पशु स्वभावका चित्रण है । बछड़ोंके स्वभावका वर्णन किया गया है । व्याजोक्ति अलंकारका स्वरूप
प्रकट हो जाने वाली कोई बात अत्यन्त सादृश्य होनेसे किसी कारणवश बहाना करके छिपा दी जाये, उसे व्याजोक्ति अलंकार कहते हैं ॥१७५।।।
___ व्याजोक्ति और अपह्नव परस्पर भिन्न-भिन्न अलंकार हैं, क्योंकि व्याजोक्तिमें छिपानेवाला व्यक्ति विषय-उपमेयका निर्देश नहीं करता है अर्थात् वास्तविक वस्तु स्वयं प्रकट नहीं होतो, कवि द्वारा प्रकट की जाती है और बादमें कवि उसे छिपाता है; किन्तु व्याजोक्ति में वास्तविक वस्तु स्वयं प्रकट हो जाती है, पश्चात् कवि उसका गोपन करता है। निष्कर्ष यह है कि व्याजोक्ति गूढार्थ-प्रतीतिमूलक अर्थालंकार है, पर अपह्नति सादृश्यगर्भ अभेद प्रधान आरोपमूलक है। वास्तविकताको विगीर्णकर अवास्तविकताका प्रकटीकरण दोनोंमें होता है। व्याजोक्तिका उदाहरण
श्रीभूमिदेवीके साथ विवाहके अवसरपर अत्यधिक रोमांच हो जानेपर उदात्त चक्रवर्ती भरतने अभिषेक किये हुए इन जलकणके समूहका क्या करना चाहिए, इसे पूछनेके लिए मन्त्रियोंकी ओर देखा ॥१७६॥
१. कुतो इत्यस्य पूर्वम् ( व्याजोक्तिः ) पदम् -रख ।
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