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अलंकारचिन्तामणिः
[४।१६८व्रीडानिद्राभिमानच्युतिगललपनादीक्षितस्वेदविन्दुश्लिष्टाङ्गं स्रस्तसर्वाभरणवरमहावस्त्रमाकम्पिताङ्गम् ॥ निर्यद्वाष्पाम्बुभाषास्खलनयुतिमहाभीभिरालिङ्गितास्ते । 'सद्घोषाघुट्टनं श्रीनिधिपतिबलतस्तजिता रेमिरेऽरम् ॥१६८।।
अत्रशृङ्गारभयानकसाधारणविशेषणबलादरीणां नायकत्वप्रतीतिः। समासोक्तौ द्वयोविशेषणविशेष्ययोः स्वीकाराभावात् श्लेषाभेदः ॥ इयमपि समासोक्तिः
मन्दं यातु गृहीतु कचमधरसुधां पातुमामोदमाशु । घ्रातु वक्षो विधातु स्वभुजशुभमहापञ्जरे चाटु वक्तुम् ।। अन्यां वृत्ति च कतु समरतपतिना षण्ड तस्मिन् मृगाक्ष्या।
*बन्धावर्ते सुमग्ने रतसुखजलधौ स्थीयते किन्नु तूष्णीम् ॥१६९।। समासोक्तिका उदाहरण
श्री निधिपति-भरतचक्रवर्तीके बलसे, शक्तिसे अथवा सेनासे तजित होकर साथ ही बड़ी डाँटसे घबराकर लज्जा, नींद, अभिमानच्युति, गललपनादि-कण्ठसे भर्रायी आवाजका आना, ईक्षण, पसीनेकी बूंदोंसे अंग भर जाना, सभी प्रकारके आभरण, महावस्त्रका सरक पड़ना और अंगोंमें कंपकपी हो जाना, आँखोंसे आँसू निकल पड़ना, वाक्-स्खलनसे युक्त महाभय आदि के कारण आपके शत्रुओंको नारियोंने जो शत्रुओंका आलिंगन कर लिया उस समय शीघ्र उन शत्रुओंने एक प्रकारसे रमण कर लिया ॥१६८॥
इसमें वोड़ा, नींद इत्यादि सभी विशेषण, शृंगार और भयानक दोनों ही रसोंमें समानरूपसे प्रयुक्त हैं । अतः उक्त पद्य में चक्रवर्तीकी डाँटके भयसे शत्रु-नारियोंकी जो दशा हुई उससे रमणको भी प्रतीति हो रही है । समासोक्तिका उदाहरण
अरे नपुंसक ! कोई पति अपनी नायिकाके प्रति मन्द-मन्द गतिसे पहुँचने, केश पकड़ने, अधर सुधाका पान करने, सुगन्धको सूंघने, अपने भुजारूप शुभ पिंजरे में वक्षको बाँधने, चाटु-वाणी बोलने तथा अन्य प्रकारकी रतिकालिक क्रियाएँ करनेके लिए तुल्यरतियुक्त होते हुए प्रवृत्त हो तो उक्त रतिसुखके समुद्र में जहाँ आवर्त अर्थात् भ्रमी बंध रहा हो, फलतः चकोहसे भरे रतिसुखके समुद्र में डूबते समय मृगाक्षी नायिका द्वारा क्या चुपचाप रहा जाता है । अर्थात् वह भी पूर्णरतिमें प्रवृत्त हो जाती है ।
यहाँ आवों से पूर्ण जलधिमें सुमग्न होते समय तूष्णीभूत होकर नहीं रहा जा सकता । इसी अन्यत् 'वस्तु' को प्रतीति समासोक्ति द्वारा हुई है। इष्टवस्तु रतिसुख है ।।१६९॥ १. सदघोटाऽऽघट्टनं -क-ख। २. भयानकशृंगारसाधारण....-ख। ३. श्लेषाद् भेद:-क-ख । ४. बन्धावृत्ते-ख । For Private & Personal Use Only
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