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चतुर्थः परिच्छेदः
चक्रिण प्रकाशमाने शशिनः कलङ्केन विना रम्यता । प्रस्तुतं वर्ण्यते यत्र विशेषणसुसाम्यतः ।
-१६७ ]
अप्रस्तुतं प्रतीयेत सा समासोक्तिरिष्यते ॥ १६६॥
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श्लिष्टविशे षणसाम्या साधारणविशेषणसाम्या चेति द्विधा क्रमेण यथागुणधर्मयुक् सुखगश्रिया ।
आलिङ्गितोऽरिवर्गोऽगाद्भावं कमपि चेतसि || १६७॥ "विभ्रमविलासशीलादिगुणस्वभावयुक्त सौख्यप्रापणलक्ष्म्याश्लिष्टाः रिपवः मौर्व्यारूढधनुः प्रयुक्तशोभन
स्वेदानन्दाश्रुदृष्टिनिमीलनादिभावमगुरित्यप्रस्तुतं
वाणश्रिया शतच्छिद्रीकृताङ्गा मूर्च्छादिभावमगुरिति प्रस्तुतोक्त्या प्रतीयते । विद्यमान रहनेपर अतीव प्रसन्न जगत् में आकाशस्थित भो चन्द्रमा अत्यन्त मनोहर प्रतीत हुआ ॥ १६५ ॥
चक्रवर्ती भरतके प्रकाशित रहने पर चन्द्रमाकी कलंकके बिना रम्यता प्रतीत
हुई है।
समासोक्ति अलंकारका स्वरूप
१६५
जहाँ विशेषणोंकी अत्यधिक समता के कारण प्रस्तुत वस्तुका वर्णन किया जाये और अप्रस्तुत वस्तुकी प्रतीति हो, वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है ॥१६६॥
समासोक्ति में समानरूपसे समन्वित होनेवाले कार्य, लिङ्ग, और विशेषण के बलसे प्रस्तुतपर अप्रस्तुतके व्यवहारका आरोप किया जाता है । समासोक्ति के भेद -
रिलष्टविशेषणसाम्य और साधारण विशेषण साम्यके भेदसे समासोक्ति दो प्रकार की है ।
लिष्टविशेषणसाम्या समासोक्तिका उदाहरण
भरतके द्वारा प्रदत्त अत्यधिक वैभवशाली सुखप्रद लक्ष्मीके द्वारा समालिङ्गित विलासीके समान शत्रुसमूहने भरतके चाप चढ़ाये धनुष के तीक्ष्ण बाणके द्वारा विद्ध अंग होनेसे विलक्षण प्रकारके भावोंका अनुभव अपने चित्तमें किया ॥१६७॥
विभ्रम, विलास, शील इत्यादि गुण और स्वभावसे युक्त सुखप्रद लक्ष्मीसे आलिगित शत्रु, स्वेद, आनन्दाश्रु, दृष्टिनिम लन इत्यादि भावोंको प्राप्त हुए । इस प्रकार के अप्रस्तुतको प्रतोति चाप चढ़ाये हुए धनुषसे छोड़े तीक्ष्ण बाणकी शोभासे सैकड़ों छिद्र किये हुए अंगवाले शत्रु मूर्च्छा आदिभाव रूप प्रस्तुत वर्णनसे हो रही है । इस प्रकार प्रस्तुत कथनसे अप्रस्तुतकी प्रतीति दिखलायी गयी है ।
१. विशेषेण.... - ख । - ख । ५. विभ्रमविलासादिगुण (शीलादि) स्वभाव - ख ।
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२. समासोक्तिरुच्यते - क ख । ३ विशेषेण - ख । ४. गुणरूढ
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