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अलंकारचिन्तामणिः [४।१७९सहजेन रिपुवधूगतेन स्मरानलोष्ण्येन मार्गवशादागन्तुकं मरुभूमिजातोष्णत्वं तिरोहितम्।
श्रीमच्चक्रेश्वरस्य प्रथितभुजमहातेजसान्तभयानां नित्यं स्वेदाश्रुकम्पाद्युपचयमपि सत्कामगोष्ठयां प्रजातम् । 'प्रेम्णोद्भतं भवेदित्यवधुतमतितो विश्वसन्ति स्म नारम् । काम्याकृष्टिक्षमश्रीहसितयुतगुणश्रीकटाक्षाः वधूट्यः ॥१७९॥
भय जातेन स्वेदादिना आगन्तुकेन सहजं प्रेमजातं स्वेदादिकं तिरोहितम् ।
वस्त्वन्तरैकरूपत्वं सामान्यालङ्कृतिर्यथा ॥१८०।। भरतयशसि लोके ज़म्भमाणेऽतिशुभ्रे शशधररजताद्रिक्षीरवा राशिमुख्ये । भुवि जनततिरीक्ष्याऽदृश्यमानेऽद्युताया । प्रमदसुलपितास्याऽन्योऽन्य मस्थादतीद्धा ॥१८१।।
यहाँ स्वाभाविक शत्रुनारियोंमें स्थित कामाग्निको उष्णतासे मार्गश्रम जनित आगन्तुक मरुभूमिमें विद्यमान उष्णताका तिरोधान बताया गया है । आगन्तुकसे सहज तिरोधानका लक्षण
श्रीमान् चक्रवर्ती भरतके प्रसिद्ध भुजदण्डके महान् तेजसे भयभीत शत्रुओंकी सुन्दर आकर्षण में समर्थ हास्ययुक्त गुणशालो कटाक्षवाली युवतियां सर्वदा काम-गोष्ठी में उत्पन्न स्वेद, अश्रु, कम्पन आदि लक्षण प्रेमके कारण उत्पन्न हुए हैं, ऐसा निश्चितरूपसे शीघ्र विश्वास नहीं करती हैं ॥१७९।
___ यहाँ भयसे उत्पन्न स्वेद आदि आगन्तुक वस्तु से प्रेम आदिसे उत्पन्न स्वेद आदि सहज वस्तुका तिरोधान हुआ है । सामान्यालंकारका स्वरूप
जहाँ अव्यक्त गुणवाले प्रस्तुत और अप्रस्तुतमें गुण-सादृश्यके कारण एकरूपताका वर्णन किया जाय, वहाँ सामान्य अलंकार होता है ॥१८०॥ सामान्य अलंकारका उदाहरण
अत्यन्त स्वच्छ भरत चक्रवर्तीके यशके फैल जाने पर चन्द्र, रजत, हिमालय, क्षीरसागर आदि श्वेत वस्तुएँ आँखोंसे इस पृथ्वीपर नहीं दिखाई देनेके कारण आश्चर्यचकित मदयुक्त मुखवाली जनता परस्पर एक दूसरेकी ओर देखती रह गयीं ॥१८१॥
२. वाराशि.... -ख । ३. जनततिरीक्ष्या दृश्यमाने -ख ।
१. प्रेम्णोद्भूतो -ख ।
४. मस्थातीद्धा -ख । Jain Education International
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