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-१५८] चतुर्थः परिच्छेदः
१६१ अतिशयितदिक्पालवृत्तिनाऽधीशेनाभेदाध्यवसायश्चक्रिणः । असम्बन्धे सम्बन्धो यथाउद्वाहे वरसार्वभौमसुरसाक्रान्ताजनो श्रियोः । सर्वाधोऽवनिचञ्च दूरतदधः पर्वाघ्रिविस्तारकः ॥ तिर्यक्षेत्रकटिस्तदूर्ध्वसदुरा ब्रह्मान्तदिग्बाहुकः। श्रीवेयकसिद्धभूगलशिरा लोकोऽनया नृत्तवान् ।।१५७।। __ अत्र चक्रिभूकान्ताविवाहसप्तैकपञ्चैकरज्जुप्रमितलोकनटताण्डवयोरसंबन्धे संबन्धः । अत्र सार्वभौमेन कुबेरदिग्गजेन निधीशस्याभेदाध्यवसायः । शोभनरसया अञ्जनया कुबेरदिक्करिण्या रसाश्रियः भूश्रियश्च ।
अन्यदपिआदिब्रह्मन् कृते किं त्रिजगति भवतो नो मुदे देव सत्यम् सृष्टिस्ते स्यात्तु तुष्ट्यै नृपवर सफला यन्निधीशः कृतोऽरम् । किं मिथ्या श्लाघसे त्वं सकलमुरुजगत्त्रातुमिन्द्रोऽवतीर्णो
गोराज्ञातो मयेति स्वजनि वरकाऽऽदीशनागेशयोस्सा ॥१५८।। अपने व्यवहारसे जोतनेवाले अधीशके साथ चक्रोका अभेदाध्यवसाय हुआ है । असम्बन्धमें सम्बन्धवर्णनारूप अतिशयोक्तिका उदाहरण
श्रेष्ठ और प्रसिद्ध चक्रवर्ती भरतेशके भूमिश्रीके साथ सम्पन्न हुए विवाहके अवसरपर पर्वाङ्घि पर्यन्त व्याप्त समस्त अधोलोकने, कटिपर्यन्त विस्तृत तिर्यक्षेत्रने, ऊपर बाहुपर्यन्त व्याप्त ब्रह्मलोकने, ग्रोवासे ऊपर विस्तृत अवेयकने एवं शिरोपरि स्थित सिद्धलोकने नृत्य किया ॥१५७।।
यहाँ चक्री और भू रूपी नायिकाके विवाहावसरपर सात, एक, पाँच और एकरज्जु प्रमित लोकरूपी नट और ताण्डव नृत्यके असम्बन्ध में सम्बन्ध दिखाया गया है। यहाँ सार्वभौम कुबेर सम्बन्धी दिग्गजके साथ निधीश भरतका अभेदाध्यवसाय हुआ है। अन्य उदाहरण
हे आदि ब्रह्मन् ! तीनों जगत्की रचना कर लेने पर केवलज्ञान द्वारा त्रिजगत् को हस्तामलक कर लेनेपर भी, सचमुच आपकी प्रसन्नताके लिए वह पर्याप्त नहीं हुआ जो कि अरम-शीघ्र ही अमित निधीशकी रचना-भरत चक्रवर्तीको जन्म दिया, सम्भवतः यह आपकी तुष्टिके लिए हो। आप व्यर्थ ही श्लाघा करते हैं, क्योंकि इस सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेके लिए यह इन्द्र-चक्रवर्तीभरत अवतीर्ण हो गये हैं ॥१५८॥
१. ऽऽदोशेना.... ख । २. जनोद्ध श्रियो -ख । ३. चञ्चदुरु.... -ख । ४. सर्वाङ्घिविस्तारतः -ख । ५. लोको नरो नृत्तवान् -क। लोको न चानृत्तवान् -ख । ६. भेदोध्यवसायः -ख । ७. सत्या -ख। ८. कथाधीशनागेशयोस्सा -ख ।
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