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१६२ अलंकारचिन्तामणिः
[११५९अत्र आदीशनागराजयोरेवंविधकथासंबन्धेऽपि संबन्ध उक्तः। इन्द्रेण चक्रिणोऽभेदाध्यवसायः।
___ कार्यकारणयोविपरीतरूपाध्यवसायरूपत्वाभावेन भिन्नाऽपि प्रौढोक्त्याऽतिशयोक्तिरिष्यते। सा यथा
कथं प्राग्भो निधीदृष्टेः शराः स्माराः पतन्त्यमी । स्मरोऽप्यस्य सुरूपेण जितस्तकिङ्करोऽभवत् ॥१५९।।
कार्यभूतस्य स्मरशरपातस्य हेतुभूतात् प्रियावलोकनादुक्त पूर्वकालत्वमिति पौर्वापर्यकृतं विपरीतत्वम् । उक्तिसाम्यालङ्कारप्रस्तावे अतिशयोक्तिहेतुका सहोक्ति: कथ्यते
यत्रान्वयः सहार्थेन प्रोच्यतेऽतिशयोक्तितः। औपम्यकल्पनायोग्याँ सहोक्तिरिति कथ्यते ॥१६०॥
आदीश-ऋषभदेव और नागेशकी अपने जन्मकी श्रेष्ठ कथा पूछे जानेपर कह सुनायो । उपरि निर्दिष्ट कथा आदीश और नागेशसे असम्बद्ध होनेपर भी सम्बद्ध की गयी है।
यहाँ आदीश्वर और नागराजके इस प्रकारके वार्तालापके असम्बन्धमें सम्बन्धका कथन है । इन्द्रके साथ चक्री भरतका अभेदाध्यवसाय हुआ है। कार्यकारणभावनियम विपर्यय-वर्णनारूप अतिशयोक्तिका स्वरूप
___ कार्य और कारणके विपरीतरूप अध्यवसायके अभावसे भिन्न रहने पर भी कविको प्रोढोक्तिसे अतिशयोक्ति अलंकारको निष्पत्ति होती है।
उदाहरण
अरे ! भरत चक्रोके दृष्टिपथमें आनेके पूर्व ही ये कामदेवके बाण गिर रहे हैं। इसके सुन्दर रूपसे पराजित कामदेव भी इसका दास हो गया है ॥१५९॥
कारण भूत प्रियावलोकनसे कार्यस्वरूप कामदेवके बाणपतनको बताया गया है। यहाँ पौर्वापर्य कृत विपरीतता है। उक्ति साम्य होनेके कारण अलंकार क्रममें अतिशयोक्ति हेतुक सहोवितका लक्षण कहते हैं। सहोक्तिका स्वरूप
जिस अलंकारमें सह अर्थवाले शब्दोंसे अन्वय किया जाये और अतिशयोक्तिके बलसे उपमानोपमेयभावकी कल्पना हो, उसे सहोक्ति अलंकार कहते हैं ॥१६०॥
१. मूलत्वाभावेन -क-ख। २. कथं प्राग्भोगि धीट् दृष्टिः....-ख । ३. हेतुता-ख । ४. योग्य....-ख।
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