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१६० अलंकारचिन्तामणिः
[४।१५५शब्दभेदे सिद्धेऽपि अभेदाध्यवसायः ।
चिन्तारत्नं दृषदिह तरुः कल्पवृक्षोऽपि कामघेनुः साक्षात्पशरपि जगद्दोषयुक्तं च दृष्टम् । वैधीसृष्टिश्चतुरवयवा सार्वभौमं स्पृशेत् किं 'लोकानन्दोप्रथमपुरुषं रूपकं दर्पदेवम् ॥१५५।।।
कविसङ्केतेन विधिसृष्टिसंबन्धेऽप्यसंबन्धः । अतिशयितब्रह्मसृष्टिना 'प्रथमपुरुषेणाधीशेन चक्रिणः अभेदाध्यवसायः ।
श्रीशक्रः शतमन्युराश्रितवपुर्दाह्यग्निरप्यन्तको बालादेरपि घातकोऽपि निऋतिः स्याद्राक्षसः प्राप्तवान् । पाश्याशामपि वारुणों चलगतिर्वायुः कुवेरो: भवो । लुब्धो भैक्ष्यभुगित्यजेन हरितां पातादिमः स्थापितः ।।१५६।। अष्टदिक्षु तत्पालसंबन्धेऽप्यसंबन्धः, आदिमस्य तत्पालनासंबन्ध उक्तः ।
श्रद्धा इत्यादिके अभेद में भी भेदको कल्पना एक ही पदार्थको अतिशयता कथनके लिए है। भिन्नताके कथनसे स्वतः शब्द भेद सिद्ध होनेपर भी अभेदका अध्यवसाय हुआ है। सम्बन्धमें असम्बन्धवर्णनारूप अतिशयोक्तिका उदाहरण
इस सृष्टि में चिन्तामणि पत्थर है, कल्पवृक्ष भी वृक्ष ही है। कामधेनु साक्षात् पशु है। इस प्रकार इच्छाओंको पूर्ण करनेवाले सभी पदार्थ दोषयुक्त हैं। विधाताकी चतुरवयवरूप सृष्टिमें प्रसिद्ध, साक्षात् कामदेवके समान सुन्दर एवं आनन्दप्रद प्रथम तीर्थंकर आदिनाथका कोई दोष स्पर्श कर सकता है, अर्थात् कदापि नहीं ।।१५५।।
कार्य संकेतसे विधिसृष्टिके सम्बन्ध में भी असम्बन्ध कहा गया है और ब्रह्माकी सृष्टि से अत्यधिक सुन्दर प्रथम तीर्थकर पुरुदेवसे चक्रो का अभेदाध्यवसाय हुआ है।
इन्द्र शतमन्यु-अहंकारी है; अग्निदेव अपने आश्रित शरीरके जलानेवाले हैं; यमराज बच्चोंकी भी हत्या करते हैं; निऋति राक्षस हैं, वरुण भी वारुणी ( मदिरा) दिशाको प्राप्त किये हुए हैं, वायु चंचल गतिवाले हैं, कुबेर लोभी हैं; शंकर भिक्षान्नको खाने वाले हैं; अतएव दिशाओंके अधिपति इन आठों देवताओं में दोषको देखकर विधाताने सम्पूर्ण दिशाओंको रक्षा करने के हेतु आदिदेव-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको स्थापित किया है ॥१५६॥
आठ दिशाओं में उनके मालिकोंके सम्बन्ध में भी असम्बन्ध और आदिदेवका उन दिशाओंकी पालकताके असम्बन्ध में भी सम्बन्ध कहा गया है। दिशाओंके पालकको
१. लोकनन्दि.... ख।
२. प्रथमपुरुषेणादोशेन -ख ।
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