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अलंकारचिन्तामणिः यथा क्रियाफलोत्प्रेक्षा चक्रियानानकध्वनिः ।
अन्वेष्टुवा रिपून्लोनान् गुहामध्यं 'विगाहते ॥१४८।। अन्वेष्टु वेति क्रियायाः फलत्वम् ।
क्रियाभावफलोत्प्रेक्षा तेजो दग्धे भुवां स्थले ।
आस्थातुमिव चक्रोशद्विषो लोकान्तरं गताः॥१४९।। अत्रास्थातुमिवेति क्रियाभावस्य फलत्वम् ।
गुणस्वरूपगोत्प्रेक्षा वक्तुरास्याद्गणेशिनः।
कृपया प्रसृता वाणी स्वशुद्धिरिव मूर्तिगा ॥१५०॥ अत्र शुद्धिर्बोधसम्यक्त्वरूपो गुणः ।
*कविप्रौढगिरा यत्र विषयी सुविरच्यते । विषयस्य तिरोधानात् सा स्यादतिशयोक्तिता ।।१५१।। भेदेऽभेदस्त्वभेदे तु भेदः संबन्धके पुनः । असंबन्धस्त्वसंबन्धे संबन्धस्सा चतुर्विधा ।।१५२।।
क्रियाफलोत्प्रेक्षाका उदाहरण
___ शत्रुओंपर आक्रमण करने के समय भरतकी वाद्यध्वनि मानो कन्दराओंमें छिपे हुए शत्रुओंको खोजने के लिए उनमें प्रविष्ट होती है ॥१४८॥
'अन्वेष्टुं वा' यह क्रियाका फल कहा गया है । क्रियामाव फलोत्प्रेक्षाका उदाहरण
चक्री भतरके तेजसे पृथिवीपरके सभी स्थानोंके जल जानेपर उनके शत्रु अच्छो तरहसे रहने के लिए मानो दूसरे लोकमें चले गये हैं ॥१४९।।
यहाँ 'आस्थातुमिव' में क्रियाके अभावका फल है। गुणस्वरूपगा उत्प्रेक्षाका उदाहरण
___ अच्छे बोलनेवाले भरतके मुख से कृपया निकलो हुई वाणो अपनी शुद्धि के समान शरीरधारिणी हुई ॥१५०॥
__ यहाँ शुद्धि ज्ञानका सम्यक्त्वरूप गुण है। अतिशयोक्ति अलंकारका स्वरूप
जहाँ कविकी प्रोढवाणोसे उपमेयके निगरणपूर्वक उसके साथ विषयो-उपमानकी अभेद प्रतिपत्ति हो, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। अर्थात् उपमेयके छिपा देनेसे अभेदरूप उपमान सुन्दर बना दिया जाता है ॥१५१॥
१. विगाहायते -ख । २. चक्रेशद्विषो लोकान्तं गताः -ख। ३. प्रकृता -ख । ४. कवि इत्यस्य पूर्वम् -ख ( अतिशयोक्तिका ) विद्यते । ५. भेदै भेदस्त्वभेदे -ख ।
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