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चतुर्थः परिच्छेदः जात्यभावफलोत्प्रेक्षा सेयं चक्रेशवैरिणः । गावोऽवध्या इति प्रापुरनृत्वाय तदाकृतिम् ॥१४४॥ नृत्वं मनुष्यत्वजातिः अनृत्वायेति जात्यभावस्य फलत्वम् । क्रियास्वरूपगोत्प्रेक्षा सेयं चक्रेशवैरिणाम् ।
मरुभूरस्तगुल्मादिनिवासं प्रददाति वा ।।१४५।। अत्र प्रददातोति क्रियास्वरूपमुत्प्रेक्ष्यम् ।
क्रियास्वरूपहोत्प्रेक्षा विमुखे चक्रिणि द्विषः ।
वनमप्यददत्स्थानं शिरः कर्षति कण्टकैः ।।१४६।। अत्र अदददित्यत्र क्रियास्वरूपस्य हा हानं अभाव इत्यर्थः ।
क्रियाहेतुर्यथोत्प्रेक्षा प्रत्यहं द्विट्मदाङ्कराः ।
म्लानाश्चक्रिप्रतापार्कतोब्रोष्माभिहतैरिव ॥१४७॥ अत्र अभिहतेरिति क्रियाहेतुत्वम् ।। जात्यभावफलोत्प्रेक्षाका उदाहरण
भरत चक्रवर्तीके लिए गौ अवध्य है, इसी कारण उनके शत्रुओंने मनुष्यत्वाभावको प्रकाशित करनेके लिए गो आकृतिको धारण किया है और गौका भोजन तृण अपने दांतों तले दबाया है ॥१४४॥
नृत्व जाति है, अनृत्व कहनेसे जात्यभाव फलित हुआ है । क्रियास्वरूपगा उत्प्रेक्षाका उदाहरण
जल, वनस्पति आदि रहित मरुभूमि-मारवाड़ भरतके शत्रुओंको निवासके लिए स्थान देती है अर्थात् भरतके शत्रु भागकर मरुभूमिमें चले जाते हैं ॥१४५॥
____ यहाँ 'प्रददाति' क्रियास्वरूपको उत्प्रेक्षा की गयी है। अर्थात् 'प्रददाति' क्रिया द्वारा ही शत्रुओंके मारवाड़में भाग जानेकी उत्प्रेक्षा की है। क्रियास्वरूपता उत्प्रेक्षाका उदाहरण
भरतके रुष्ट होनेपर वन भी स्थान न देता हुआ नाना कण्टकोंसे शत्रुओंके सिरको खींच रहा है ॥१४६॥
यहाँ 'अददत्' में क्रियास्वरूपका हा= हानि अर्थात् अभाव है। क्रियाहेतूत्प्रेक्षाका उदाहरण
भरतके प्रतापरूपी सूर्यको तीव्र किरणोंसे चोट खाये हुए के समान शत्रुरूपो हाथियोंके मदके अंकुर प्रतिदिन मलिन होते जा रहे हैं ॥१४७॥
यहाँ 'अभिहतेः इव' क्रियाहेतुता है। १. तदाकृतिमित्यत्र तृणादन मिति पाठान्तरम् । इति प्रथमप्रती पादभागे। .
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