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चतुर्थः परिच्छेदः
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चन्द्रादयः । ज्योतिरवधिबोधः, राज्यकाले तस्यैव भावात् । 'कूनां भुवां वलयं उत्पलानि च । आश्लिष्टपरम्परितं केवलं यथा
युगादिदेव सूर्यस्य दिव्य भाषोरुदीधितिः । सर्व काष्ठाप्रकाशाय क्षमा मे भातु मानसे ॥ ११२ ॥ अथाश्लिष्टमाला परम्परितं यथा
क्रोधाग्निजलदः श्लिष्टप्रजावार्राशिचन्द्रमाः । असत्प्रजान्धकारे नः प्रबभौ चक्रभृद्वरः ॥ ११३॥ वैसादृश्येनाप्यश्लिष्टमाला परम्परितं भवति । मिथ्यात्वात यामिन्यो मोहध्वान्तोरुवासराः । श्रीमत्समवसृत्याश्रीतादिब्रह्मोतिकेलयः ॥ ११४ ॥ वाक्यगत्वसमासगत्वाभ्यामेतदष्टविधमपि षोडशविधं स्यात् ॥
अर्थमें प्रयुक्त है । इन्दन्ति ज्योतींषि - चन्दादि; ज्योतिः - अवधिज्ञान; क्योंकि पुरुदेव - ऋषभदेवको राज्य करने के समय 'अवधिज्ञान' ही था । 'कूनाम्' – पृथ्वीका वलयपरिधि अथवा कमल 1
केवल अश्लिष्ट परम्परितका उदाहरण
सभी दिशाओं को प्रकाशित करने में समर्थ भगवान् आदिनाथरूपी सूर्यको दिव्यभाषारूपी किरण सर्वदा मेरे मनमें प्रकाशित हो ॥ ११२ ॥ - अश्लिष्टमाला परम्परितका उदाहरण
हम लोगोंके दुष्ट प्रजारूपी अन्धकार में क्रोधरूपी अग्निको शान्त करनेके लिए मेघस्वरूप श्लिष्ट प्रजारूपी समुद्र के लिए चन्द्रस्वरूप श्रेष्ठ चक्रवर्ती भरत देदीप्यमान हुए ॥११३॥
सायके न होनेपर मी अश्लिष्टमाला परम्परित होता है । यथा ---
मिथ्यात्व आतपरूपी रात्रियाँ और मोहान्धकाररूपी उरुवासर श्रीमान्के समवशरण में आकर विरक्तिजन्य ब्रह्मोक्तिरूपी केलियाँ हैं ॥११४॥
यहाँ वैसादृश्यका प्रयोग है । रात्रियोंको आतपरूप, दिनको अन्धकाररूप और ब्रह्मोक्तियों को केलियोंरूप कहा गया है । रात्रि में अन्धकार दिनमें आतप और ब्रह्मोक्तियों में शान्ति या केलिका अभाव रहता है, इस सादृश्यका प्रयोग न कर वैसादृश्यका प्रयोग हुआ है।
वाक्य में और समास में स्थित होनेसे आठ-आठ प्रकारका होते हुए सोलह प्रकार का रूपक होता है ।
१. खप्रती कूनामिति पदं नास्ति । भुवां वलयः उत्पलानि च - ख । २. श्रीमत्समत्रसृत्याश्रीदादि.... - क 1 श्रीमत्समव सृत्याश्री पादिब्रह्मोक्तिकेवलः - ख ।
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