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अलंकारचिन्तामणिः
[ ४।११५ पल्लवः पाणिरेतस्याः पादौ पद्मो मुखं शशी। लोचने कैरवे चेति वाक्यगं रूपकं मतम् ।।११५॥ व्यस्तरूपकमिति चास्य नाम । जिनार्को दिव्यवाग्दीप्त्या भव्यचेतोऽम्बुजानि वै । सुरेशकोकसंसेव्यो व्यकासयदनुत्तरः ॥११६।। 'समासगतमिदमेवं सर्व योज्यम् । पुनरप्यस्य कश्चिद् विशेषो यथाभारतीप्रसरो वक्त्रचन्द्रस्यादि जिनेशिनः । ज्योत्स्नाप्रसर इत्येतत्समस्तव्यस्तरूपकम् ।।११७।। शोणाङगुलिलसत्पत्रनखभाभारकेसरम् । पादाम्बुजं निधीशस्य स्वोत्तमाङ्ग धृतं नृपैः ।।११८।। सकलरूपकमिदं तत्तद्योग्यस्थानविन्यासात् ।
व्यस्तरूपक या वाक्यगत रूपकका उदाहरण
इस सुन्दरीका हाथ-पल्लव है, पैर-कमल हैं, मुख-चन्द्रमा है और नयन-कैरवकमल हैं । यह वाक्यस्थित रूपकका उदाहरण है ॥११५।।
समासगतरूपक
अनुत्तर विमानवासी देवरूपी चक्रवाकसे सेवनीय तीर्थंकररूपी सूर्यने सज्जन पुरुषों के चित्तरूपी कमलको विकसित किया है ॥११६॥
यह समासस्थित रूपकका उदाहरण है। इसी प्रकार अन्य सभी भेदोंको समझना चाहिए । यहाँ अन्य कुछ भेदोंके उदाहरण कहते हैं । यथा--
श्रीमान् प्रथम जिनेश्वरके मुखचन्द्रकी वाणीका विस्तार चन्द्रमाकी किरणोंका विस्तार ही है।
यह समस्तव्यस्त रूपकका उदाहरण है ॥११७॥
चक्रवर्ती भरतके लाल अंगुलियोंसे सुशोभित पत्ररूपी नखकी कान्तिके समहरूपी केसरवाले चरणकमलको राजाओंने अपने मस्तकपर धारण किया ॥११८॥
उन-उन उचित स्थानोंपर स्थित पत्र, पल्लव और पुष्पादिका वर्णन रहनेसे यह सम्पूर्ण रूपक है।
१. समासगमिदम् -ख । २. भारति....-ख । ३. शोणांगुली.... -ख ।
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