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१३४ अलंकारचिन्तामणिः
[ ४॥६२ पल्लवाविव पाणी ते पादौ पद्माविव प्रिये । इति या गम्यमानकधर्मा वस्तूपमा तु सा ॥६२॥ त्वबोध इव गम्भीरः क्षीराब्धिर्भाति भो जिन । विपर्यासात् प्रसिद्धस्य विपर्यासोपमा मता ॥६३॥ त्वत्पदे इव नीरजे नीरजे इव ते पदे । ईत्यन्योन्योपमान्योन्यसमुत्कृष्टत्वशंसिनी ॥६४॥ त्वद्विधा दर्पणेनैव सदृङ नान्येन केनचित् । इतोतरसदृशत्वहानेः सा नियमोपमा ॥६५॥ चन्द्रोऽन्वेतु मुखं तावदस्त्यन्यद् यदि तादृशम् । तत्सादृश्यकरं तत्स्यादित्युक्ता नियमोपमा ॥६६॥
इस पद्यमें साक्षात् सादृश्यधर्मका कथन है, अतः इसे धर्मोपमा कहा जायेगा। वस्तूपमाका उदाहरण
हे प्रियतमे ! तुम्हारे हाथ दो पल्लवोंके समान और दोनों पैर कमलके समान हैं । यहाँ अनेक धर्मोको प्रतीति होनेके कारण वस्तूपमा है ॥६२॥ विपर्यासोपमालंकार
हे जिनेश्वर ! आपके बोधके समान गम्भीर महासागर सोभता है। यहाँ प्रसिद्धको उपमेय और अप्रसिद्धको उपमान बना देने के कारण विपर्यासोपमालंकार माना गया है ॥६३॥ अन्योन्योपमालंकार
तुम्हारे पैरोंके समान कमल हैं और कमलोंके समान तुम्हारे पैर हैं; इस प्रकार परस्परमें एक दूसरेको श्रेष्ठताका प्रतिपादन करनेवाले होनेसे अन्योन्योपमालंकार माना गया है ॥६४॥ नियमोपमालंकार
तुम्हारी विद्या दर्पणके ही समान है दूसरे किसीके समान नहीं है, इस प्रकार अन्य सादृश्याभावके कारण इसे नियमोपमा कहते हैं ॥६५॥ अनियमोपमा--
यदि उसके समान दूसरा है, तो चन्द्रमा मुखका अनुगामी हो सकता है, उसकी समानता वह कर सकता है। इस प्रकारकी प्रतीति होने पर अनियमोपमालंकार होता है ६६॥ १. पल्लवेत्यादि पूर्वम् वस्तूपमा पदम्-ख । २. त्वदिति पूर्व नियमोपमा-ख । त्वद्बोध इत्यस्य स्थाने तद्बोध-ख । ३. नीरजे नीरेजे-ख । ४. इत्यन्योपमान्योन्यसमुत्कृष्टत्वशंसिनी-ख ।
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