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चतुर्थः परिच्छेदः एषा समस्तविषया। गिरिभिरिव चद्भिरणैः श्रीतरंगरिव चलिततुरङ्गर्यानपात्रध्वजैर्वा । प्रतिरथमुरुशोभैः केतनैालजालैरिव धृतकरवालैश्चक्रिसैन्यं प्रतस्थे ।।५९।।
अत्र सैन्यं समुद्र इवेति सामर्थ्यात् सिद्धरेकदेशवर्तित्वम् ॥ इयमुपमा मालारूपेण दृश्यते॥
यथापुष्पति हंसति हारति कैलासति कुमुदति क्षपाकरति । रजताचलति मुंकून्दति यशोगणो भरतराजस्य ।।६०॥
"अत्रकोपमेयस्यानेकोपमानप्रदर्शनेन मालात्वम् । भेदाभेदसाधारणं साधयं प्रयोजकमुपमायाम् ॥ पुनरप्युपमाविशेषोऽयम्
चन्द्रबिम्बमिवास्यं ते पुश्चकोरदृगुत्सवम् ।।
साक्षात्सादृश्यधर्मोक्तेरिति धर्मोपमा तु सा ॥६१॥ एकदेशविवर्तिनीका उदाहरण
___चलते हुए पर्वतोंके समान हाथियोंसे युक्त, सुन्दर तरंगोंके समान चंचल अश्वोंसे युक्त, विमानोंमें लगी हुई ध्वजाओंके समान प्रत्येक रथमें लगी हुई सुन्दर ध्वजाओंसे युक्त , भयंकर सर्पसमूहके समान तलवारधारियोंके साथ शत्रु विजयके समय चक्रवर्तीको सेनाने प्रस्थान किया ॥५९॥
___ इस पद्यमें वणित चक्रवर्तीको सेना समुद्रके समान है, यह शब्द-सामर्थ्य से सिद्ध होनेके कारण एकदेशवित्तिनी है। यह उपमा माला रूपसे देखी जाती है। यथामालोपमाका उदाहरण
महाराज भरतका कीर्तिसमूह हंस, हार, कैलास, कुमुद, चन्द्रमा और सुन्दर कुन्द पुष्पके समान आचरण करता है ॥६०॥
यहाँ एक उपमेयको अनेक उपमानों द्वारा दर्शाया गया है। यह मालालंकार या मालोपमालंकार है । भेद और अभेद सामान्य साधर्म्य उपमा प्रयोजक हैं, फिर भी यह उपमाविशेष है। धर्मोपमाका उदाहरण--
नरचकोरके लोचनको प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमाके बिम्बके समान तुम्हारा मुख है ॥६॥
१. चरित-ख । २. सिद्धेरेकदेशविवर्तित्वम्-ख । ३. सुकुन्दति-ख । ४. अत्रेत्यादि पूर्वम् खप्रतो "अथोपमालंकारभेदाः" इयमधिका पङ्क्तिः ॥ ५. अत्रैव उपमेयस्य-ख । ६. चन्द्रबिम्बमिवाद्यन्ते-ख ।
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