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१३२ अलंकारचिन्तामणिः
[ ४१५६अत्र राज्ञां देवानां च नतमूर्धान इति युगपदेव सादृश्यमुक्तम् । तदा गुणानामाकरं पूज्यमिति भरतस्य पुरोश्च समधर्मत्वं सकृदेवोक्तम् ।
भूषितो भरताधीशो रत्नैरुरुसुखप्रदैः ।। गुणैरलंकृतः सर्वैरादिब्रह्मेवभास्वरः ॥५६॥ अत्र भूषितालंकृतशब्दाभ्यामेकार्थत्वाद् वस्तुप्रतिवस्तुभावः । हारशोभितवक्षःश्रीरादिचक्री बभौ तराम् । महामरुरिव श्वेतनिर्मलायतनिर्झरः ॥५७॥
अत्र हारनिर्झरयोः सादृश्येन चक्रिमेोः सादृश्यमिति बिम्बप्रतिबिम्बभावः । अन्यदपि द्वविध्यमुपमालंकारस्य समस्तविषया एकदेशवर्तिनी चेति ।
देशो नाक इवाभाति 'विनीतेन्द्रपूरोव च । पौराः सुरा इवाभान्ति मघवानिव चक्रिराट् ।।५८॥
यहाँ राजाओं और देवताओंका 'नतमूर्धानः' इस शब्दसे एक हो बार सादृश्य कहा गया है और गुणोंका आकर एवं पूज्य इस प्रकार भरत और पुरुको समधर्मता एक ही बार कही गयी है। वस्तु-प्रतिवस्तुमावका उदाहरण
सभी गणोंसे सुशोभित देदीप्यमान आदि ब्रह्मा--आदि तीर्थकरके समान अनेक सुखदायी रत्नोंसे विभूषित भरत चक्रवर्ती हैं ॥५६॥
यहाँ विभूषित और अलंकृत शब्दोंके एकार्थक होनेके कारण वस्तु-प्रतिवस्तुभाव है। बिम्ब-प्रतिबिम्बमावका उदाहरण
श्वेत, स्वच्छ और विस्तृत झरनावाले महामेरु पर्वतके समान हारसे युक्त वक्षःस्थलसे शोभित आदि चक्री भरत अतिशय सुशोभित हुए ॥५७॥
यहाँ हार और निर्झरके सादृश्यसे चक्री और मेरुका सादृश्य है, अतएव बिम्बप्रतिबिम्बभाव है। अलंकारका द्वैविध्य भी है-(१) समस्तविषया (२) एकदेशविवर्तिनी। समस्तविषयाका उदाहरण
देश स्वर्गके समान सोभता है। अयोध्या नगरी अमरावती के समान सोभतो है । नागरिक देवताओंके समान सुशोभित हैं तथा इन्द्र के समान चक्रवर्ती सुशोभित हो रहे हैं ॥५८॥
यह पद्य समस्तविषयाका उदाहरण है ।
१. विनीता अयोध्यानगरी-प्रथमप्रती पादभागे ।
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