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११८ अलंकारचिन्तामणिः
[४७सति सामान्यम्, उत्कृष्टगुणयोजनहीनगुणतिरोहितत्वे मीलनम् । अन्ययोगव्यवच्छेदेनाभिप्रायाभावादुदात्तस्य परिसंख्यातोऽन्यत्वम् ।
कार्यसिद्धौ काकतालीयत्वेन कारणान्तरसंभवे समाधिः। सिद्धावहमहमिकया हेतूनां बहूनां व्यापृतौ समुच्चयः । ततस्तयोरन्यत्वम् । व्याजस्तुत्यपह्नत्योरपलापस्य गम्यवाच्यत्वाभ्यां श्लेषाणां भेदः सुगमः। मीलनसामान्यव्याजोक्तिष साधर्म्यस्य कथंचित्सत्त्वेऽप्यविवक्षितत्त्वान्न गणना साधर्म्यमलेषु । उदात्त और परिसंख्या अलंकारमें भेद
अन्ययोगव्यवच्छेदके द्वारा कथित अभिप्राय परिसंख्या अलंकारमें होता है, उदात्तालंकार में नहीं । अतः ये दोनों परस्परमें भिन्न हैं। अर्थात् एक वस्तुकी अनेकत्र स्थिति सम्भव रहने पर भी अन्यत्र निषेध कर एक स्थान में नियमन कर दिया जाये, वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है । संस्कृतके अन्य अलंकारशास्त्रियोंने भी लोकसिद्ध वस्तुव्यवच्छेद और नैयायिक या मीमांसक सम्मत वस्तुव्यवच्छेदसे हटकर कल्पनाप्रसूत अन्यवस्तुव्यवच्छेदमें ही इस अलंकारको स्वीकार किया है। उदात्तमें अन्यका निषेध नहीं किया जाता है और लोकोत्तर वैभव अथवा महान् चरित्रको समृद्धि का वर्ण्यवस्तुके अंगरूपमें वर्णन किया जाता है । समाधि और समुच्चय अलंकारमें भेद
जहाँ काकतालीयन्याय--अचानकसे कारणान्तरके मिलनेसे कार्यसिद्धि हो जाये, वहाँ समाधि अलंकार होता है और 'अहं पूविकया अहं पूविकया' अनेक कारणोंके मिलनेसे कार्यसिद्धि सम्पन्न हो, वहाँ समुच्चय अलंकार होता है । समाधिमें आकस्मिक कारणान्तर या कर्ताके योगसे कार्यकी सिद्धि दिखलायी जाती है; पर समुच्चयमें कार्यसिद्धि के लिए एक समर्थ साधकके रहते हुए भी साधनान्तरका कथन किया जाता है। इसमें कार्यकी सिद्धि हेतु एक कारणके होते हुए भी अन्य कारणका समावेश स्वीकार किया जाता है । पर समाधिमें आकस्मिक रूपसे कारणान्तरका संयोग होता है। व्याजस्तुति और अपह्नुतिमें भेद
व्याजस्तुति और अपह्नति इन दोनों अलंकारोंमें यद्यपि अपलाप---असत्य कथन रहता है, किन्तु व्याजस्तुतिमें वह प्रतीयमान और अपह्नतिमें वाच्य होता है । अतः उक्त दोनों अलंकारों में भिन्नता है । मीलन, सामान्य और व्याजोक्तिकी व्यवस्था
मीलन, सामान्य और व्याजोक्तिमें साधर्म्यके कथंचित् रहनेपर भी अविवक्षित होनेके कारण साधर्म्यमूलकोंमें गणना नहीं की गयी है।
१. शेषाणां-ख ।
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