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उदाहरणम्'
चतुर्थः परिच्छेदः
समुद्र इव गम्भीरः सुमेरुरिव सून्नतः ।
दिग्दन्तीव च षट्खण्डधौरेयो भरतेश्वरः ||१९||
धर्मत इत्यनेन श्लेषनिरासः । श्लेषालंकारे शब्दसाम्यमात्रस्याङ्गीकारात् । न गुणक्रियासाम्यस्य । उदाहरणम्सन्मार्गे सुविराजन्ते तमोनिवहवारणाः ।
गुणानां राजयो नानातारालय इव स्फुटाः ||२०||
अत्र ताराराजय इव गुणराजय इति नोपमा | सन्मार्गे इत्यत्र अर्थ - साम्याभावात् । सन् जैनो मार्गो रत्नत्रयरूपो यस्य मुनेः । तारापक्षे नभसीति व्याख्यानात् । किंतु श्लेष एव । साम्यमन्येन वर्ण्यस्येत्यनेन प्रतीपालंकारव्यावृत्तिः । प्रतीपे उपमानत्वकल्पनादुपमेयस्य प्रकृतेन सहाप्रकृतस्य साधर्म्य - वर्णनात् । उदाहरणम्
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उपमाका उदाहरण
भरतेश्वर — भरतचक्रवर्ती समुद्रके समान गम्भीर, सुमेरुके समान अत्युन्नत एवं दिग्गज के समान छह खण्डके भारको धारण करनेमें समर्थ हैं ॥ १९ ॥
उपमाके लक्षण में 'धर्मतः ' पद दिया गया है, जिससे यह लक्षण श्लेषालंकार में घटित नहीं होता; क्योंकि श्लेषमें केवल शब्दोंकी समता मानी गयी है । गुण और क्रियाकी समता नहीं मानी जाती है ।
उपमाका आधार सादृश्य है । सादृश्यको चमत्कृतिजन्य और सहृदय के लिए आह्लादक होना आवश्यक है, साथ ही उसे वाच्यरूपमें स्पष्टतः प्रकट होना भी अनिवार्य है, व्यंग्यरूपमें प्रतीयमान नहीं ।
श्लेष और उपमाके स्पष्टीकरणका उदाहरण --
देदीप्यमान अनेक तारापंक्तियोंके समान अन्धकार समूहको दूर करनेवाले गुणोंके धारी मुनिराज रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में सुशोभित हो रहे हैं ||२०||
यहाँ ताराश्रेणी के समान गुणश्रेणी यह उपमा नहीं है । 'सन्मार्गे' यहाँ पर अर्थसाम्य नहीं होनेके कारण सत् मार्ग — रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्गके धारी मुनिराज । तारापक्ष में 'सन्मार्गे' का अर्थ ' आकाश में' है । उपर्युक्त श्लोक में सादृश्य रहनेपर भी 'श्लेष' ही है; उपमा नहीं । यतः यहाँ 'धर्मतः ' सादृश्यका अभाव है । जहाँ धर्मतः सादृश्य होगा, वहीं पर उपमाको स्थिति सम्भव है ।
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१. उदाहरणमित्यस्य स्थाने 'उक्तं च' करतो अस्ति । २. खप्रती 'जैनो' इत्यस्य स्थाने समीचीनः पदमस्ति । ३. खप्रती 'तारापक्षे' इत्यस्य स्थाने तादापेक्षे पाठोऽस्ति । ४. साधर्म्यस्थाने साम्यपाठ: - ख ।
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