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१२२ अलंकारचिन्तामणिः
[४।२१विशेषं न जनो वेत्ति किं कुर्मः कस्य भाष्यते । यन्महाभरतेशेन चन्द्रमा उपमोयते ॥२१॥
अत्र प्रकृतेन भरतेशेन अप्रकृतस्य चन्द्रमसः सादृश्यमिति प्रतीपालंकारो नोपमा। सोम्यमित्यनेनोपमेयोपमानिराकरणम् । तस्यामुपमानोपमेययोरनेकदा सादृश्यवचनात् । उदाहरणम् ।।
सरस्वतीव भाति श्रीः श्रीरिवास्ति सरस्वती। सुभद्रा ते इवाभाति, ते सुभद्रेव चक्रिणी ॥२२॥
अत्र सरस्वतीव श्रीः श्रीरिव सरस्वतीत्यनेनानेकदा इव शब्दद्वयेन ब्राह्मीलक्ष्मीसुभद्राणां साम्यं निरूप्यते इति उपमेयोपमा। वाच्यमित्यनेन केषांचिद्रपकादिप्रतीयमानौपम्यानां निरासः । उदाहरणम्
श्रीमते सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे ।
धर्मचक्रभृते भत्रे नमः संसारभीमुषे ॥२३॥ - उपमाके लक्षणमें “साम्यमन्येन.वर्ण्यस्य" इस अंशके रहनेसे उपमाका लक्षण प्रतीपालंकारमें घटित नहीं होता। प्रतीपमें उपमानत्वको कल्पना की जाती है तथा उपमेयका प्रकृतके साथ अप्रकृतके साधयंका वर्णन किया जाता है । यथाउदाहरण
भरतचक्रवर्तीकी चन्द्रमासे उपमा दी जाती है, वह अनभिज्ञताका परिणाम है। लोक विशेष समझते नहीं, हम क्या करें ? किसको क्या कहें ? ॥२१॥
यहाँ प्रकृत भरतसे अप्रकृत चन्द्रमाका सादृश्य कहा गया है, इसलिए प्रतीपालंकार है, उपमा नहीं । उपमाके लक्षण में 'साम्य' का समावेश किया गया है, अतएव यह लक्षण उपमेयोपमामें नहीं जाता है; क्योंकि उसमें उपमान और उपमेयका अनेक बार सादृश्य कहा गया है। उदाहरण
भरतचक्रवर्तीमें लक्ष्मी सरस्वतीके समान और सरस्वती लक्ष्मीके समान; लक्ष्मी और सरस्वतीके समान सुभद्रा एवं सुभद्राके समान लक्ष्मी-सरस्वती सुशोभित होती हैं ॥२२॥
__ यहाँ सरस्वतोके समान श्री, श्रीके समान सरस्वती इत्यादि अनेक बार आये हुए इव; इस दो बार शब्दसे भारती और सुभद्रामें समताका निरूपण हुआ है; अतएव यहाँ पर उपमेयोपमा अलंकार है।
उपमाके लक्षण में 'वाच्यम्' पद द्वारा रूपक इत्यादिमें प्रतीयमान औपम्यका निराकरण किया गया है।
१. साम्यमेकदेत्यनेनोपमेयोपमा क-ख। २. खप्रती-चक्रिणो पाठः ।
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