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अलंकारचिन्तामणिः
[४७तुल्ययोगितयोरप्रस्तुतप्रस्तुतानां समस्तत्व-व्यस्तत्वाभ्यां भेदः । उत्प्रेक्षोपमयोरुपमानस्याप्रसिद्धप्रसिद्धत्वाभ्यां भेदः । उपमाश्लेषौ अर्थसाम्येन च भिद्यते । उपमानन्वयौ स्वतोभिन्नत्वाभ्यामुपमानोपमेययोभिन्नी । उपमोपमेयोरुपमानोपमेयस्वरूपस्थयोगपद्यपर्यायाभ्यां भेदः । समासोक्त्यप्रस्तुतप्रशंसयोरप्रस्तुतस्य दीपक और तुल्ययोगितामें परस्पर अन्तर
दोपक और तुल्ययोगितामें अप्रस्तुत और प्रस्तुतके क्रमशः समस्त और व्यस्त होनेके कारण परस्पर भेद है । आशय यह है कि दोनों सादृश्यगर्भ गम्यौपम्याश्रयमूलक वर्गके पदार्थगत अर्थालंकार हैं। दोनोंमें एक धर्माभिसम्बन्ध होता है। दोनों सादृश्य, साधर्म्य पद्धति द्वारा निर्दिष्ट होते हैं । दोनोंमें कथन एक वाक्यगत होता है, पर दीपकमें जहाँ प्रस्तुताप्रस्तुतका एक धर्माभिसम्बन्ध होता है, वहां तुल्ययोगितामें केवल प्रस्तुतका अथवा केवल अप्रस्तुत का । उत्प्रेक्षा और उपमा अन्तर
उत्प्रेक्षा और उपमा क्रमशः उपमानको अप्रसिद्धि और प्रसिद्धिके कारण भिन्नता है। तात्पर्य यह है कि ये दोनों ही साधर्म्यमूलक अर्थालंकार हैं, पर उपमा है भेदाभेदतुल्यप्रधान और उत्प्रेक्षा अभेदप्रधान अध्यवसायमूलक है। उपमा उपमेय और उपमानमें साम्यप्रतिपादन किया जाता है और उत्प्रेक्षामें उपमेयमें उपमानको सम्भावना की जाती है । उपमामें साम्यभाव निश्चित है, पर उत्प्रेक्षामें अनिश्चित । उपमा और श्लेषमें अन्तर
उपमा और श्लेष अर्थसाम्यके कारण भिन्न हैं, ( क्योंकि श्लेषमें शब्दसाम्य होता है )। उपमा और अनन्वयमें अन्तर
उपमान और उपमेयके स्वतो भिन्न होनेके कारण उपमा और अनन्वय परस्पर भिन्न है।
उक्त दोनों भेदाभेदतुल्यप्रधान साधर्म्यमूलक अर्थालंकार हैं। उपमा उपमेय और उपमान भिन्न-भिन्न होते हैं, अनन्वयमें उपमेय ही स्वयं उपमान होता है । उपमा और उपमेयोपमा मिन्नता
__उपमामें उपमेय एक ही बार दिखलाई पड़ता है, पर उपमेयोपमामें कभी उपमेय उपमान और कभी उपमान उपमेय हो जाता है, अतः उपमा और उपमेयोपमा भी परस्पर भिन्न हैं । तात्पर्य यह है कि उपमा एक वाक्यगत होती है और उपमेयोपमा १. उत्प्रेक्षोपमयोरुपमानस्याप्रसिद्धत्वप्रसिद्धत्वाभ्यां भेदः-ख । २. अर्थसाम्येन शब्दसाम्येन च-ख । ३. उपमानन्वयौ स्वतो भिन्नत्वाभिन्नत्वाभ्यामुपमेययोभिन्नौ-ख ।
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