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'श्रीमदनन्ततीर्थंकरेभ्यो नमः
अथ चतुर्थः परिच्छेदः
चारुत्व हेतुना येन वस्त्वलक्रियतेऽङ्गवत् । हारकाञ्चयादिभिः प्रोक्तः सोऽलङ्कारः कवीशिभिः ॥ १ ॥ चारुत्वहेतुतायां च गुणालंकारयोरपि । गुणः संघटनाश्रित्या शब्दार्थाश्रित्यलक्रिया ॥२॥ शब्दार्थोभयभेदेन सामान्या त्रिविधा तु सा । तत्रार्थालङ्कृतिः प्रोक्ता चतुर्धा तु समासतः ॥३॥ प्रतीयमानशृङ्गाररसभावादिका मता । स्फुटा प्रतीयमानान्या वैस्त्वोपम्यतदादिके ॥४॥
अलंकारका लक्षण -
हार और काञ्ची- करधनी इत्यादि आभूषणोंसे जैसे सुन्दर रमणोके अंग सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार शब्दार्थ-सौन्दर्यके कारण जिससे वस्तुकी शोभा बढ़ती है, काव्यशास्त्र के विद्वानोंने उसे अलंकार कहा है ॥ १ ॥
गुण और अलंकारमें भेद
यद्यपि काव्यसौन्दर्य के कारण गुण और अलंकार दोनों हैं, तो भी संघटनाका आश्रय लेकर गुण काव्यकी शोभाको बढ़ाता है और शब्दार्थका आश्रय लेकर अलंकार शब्दार्थ शोभाको बढ़ाता है ||२||
अलंकार के भेद
वह अलंकृति - अलंकार सामान्यतया शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार - के भेदसे तीन प्रकारकी मानी गयी है । इन तीनों भेदोंमें अर्थालंकार संक्षेपमें चार प्रकारका माना गया है || ३ ||
अर्थालंकारों के भेदोंका निर्देश -
( १ ) प्रतीयमान शृंगार-रस-भाव इत्यादि रूपवाली; (२) स्फुट प्रतीयमानके
१. श्रीमत्पञ्चगुरुभ्यो नमः अथ अलङ्कारचिन्तामणी चतुर्थः परिच्छेदः - ख । २. ऽनेन इति - ख । ३. वस्त्वौपम्ये तदादिके-क
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