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तृतीयः परिच्छेदः
अभवदूर्ध्वमुदारवः, सुरगणं विहितो विहितोभियाम् । श्रुतिमधो मुखरो मुखरोदितो, व्यथितभोजगतो जगतोऽरुणत् ॥२७॥ नेमीश्वरे दोक्षार्थं गच्छति सति । भोजगतः । भियां श्रुति भयंकरश्रवणमुत्पादयन् मुखरोदितः मुखजातरोदनध्वनिः ।
सरसि पङ्कजराजितराऽजित जिनतनावुपलक्षणलक्षण | तेतिरिवैवमराजत राजतगिरिसितोक्तिनिरं जनरंजन ||२८||
उपलक्ष्यन्ते दृश्यन्ते इत्युपलक्षणानि च तानि लक्षणानि च हलकुलिशादीनि । निर्मलया निरा निष्कलङ्कः यथा भवति तथा जीवान् रंजयतीति । पादावृत्ती दर्शितप्रकारेण पदावृत्यादावपि बोद्धव्यमिति न क्रमाः कथ्यन्ते ॥ प्रमदया गतया रहिते त्वयि प्रमदयागतया जिन भासते । सुमनसां सहिते ततिरायता सुमनसां सहिते करसारिता ||२९|| प्रकृष्टश्रीकृपागतेन हितेन सुखेन युते । सुराणां हस्तप्रेरिता ॥
विकीर्ण |
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भगवान् नेमीश्वरके दीक्षाके हेतु प्रस्थान करते समय ऊपर देवोंने निर्भय हो उत्कृष्ट हर्षध्वनि की और नीचे पृथ्वीपर व्यथित भोजराज आदिके मुखर क्रन्दनने संसार के कानोंको आपूरित कर दिया ||२७||
विजयार्ध पर्वत - रजतगिरिके सदृश निर्मलवाणीके कारण निष्कलंक एवं जनरंजन हे भगवन् अजित जिन ! आपके शरीर में सरोवर में कमलपंक्तिके तुल्य अनेक शुभलक्षण शोभित हो रहे हैं ॥ २८ ॥
उपलक्ष्यन्ते – दृष्टिगोचर होते हैं, उपलक्षणानि - हलि, कुलिश आदि शुभ लक्षण, निरा — निष्कलंक रूपसे जीवोंको अनुरंजित करनेवाले, पादावृत्ती- दर्शित क्रम से । जिस प्रकारकी पदावृत्ति पूर्व आयी है, उसी प्रकार यहाँ भी पदावृत्ति समझनी चाहिए | अतः क्रमका कथन नहीं किया जा रहा है ।
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हे भगवन् जिन ! स्वेच्छया आयी हुई प्रमदा - नारीसे रहित और आनन्दसे उपलक्षित पूजा से युक्त एवं हितसे युक्त आप पर देवों के द्वारा विकीर्णित पुष्पपंक्ति
सुशोभित होती है ||
'प्रमदया गतया सहिते' पदका अर्थ - प्रकृष्ट या लक्ष्मी रूप दयाको प्राप्तिसे युक्त भी सम्भव है || २९ ॥
प्रकृष्ट — श्री लक्ष्मी - ज्ञान लक्ष्मीकी कृपासे, हितेन - सुखसहित, देवों द्वारा
१. भोजगतः
इत्यनन्तरम् उग्रसेनमहाराजगतः इत्यधिको पाठ:-क तथा ख I २. ततिरिवैवमराजित राजित - ख । ३. गिरा निष्कलङ्कम् - ख तथा क ।
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