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अलंकारचिन्तामणिः
[२।१६९३तेन गमनरूपभवभ्रमणेन नातति न भ्रमति इति अतनानातनानातः तस्य संबोधनम् । तनावित तनौ इत लीन । सामर्थ्यात्समवसरणशरीरस्थित । यतः आघी पतनां कर्मसेनां त्वत्तो ना जयति इति तत् नौमीति संबन्धः ।।
पादत्रितयमूर्ध्वाधः क्रमादालिख्य चान्तिमम् । पादं कोणचतुष्के तु लोनं कुर्वीत पट्टके ॥१६९३।। धीशं कान्ताभयं देवं यस्यानन्तं च नत्वहम् । मीनाक्ष्यमि जितातत कान्ताधीताकधीकता ॥१७०१॥
यस्य मीनाक्षी अधीता कलाकूशला। के परमात्मनि धीर्यस्याः तस्याः भावः कधीकता, न कधीकता यस्यास्सा अधीकता परमात्मभावनारहिता कान्ता नास्ति तम् एमि आश्रयामि । अगमनम्-मरण-जन्म-मरणरूप संसारप्रपंचसे रहित; 'तनो'-शरीरमें, 'इत'लीन-कान्ति से समवशरणमें स्थित; 'आपों'-कर्म, पृतनाम्'-सेनाको, 'ना'-जीतते हैं, 'नौमि'-नमस्कार करता हूँ। दर्पणबन्धका स्वरूप
जिस रचनाविशेषमें कवि छह बार पादमध्य, सन्धि और मध्यमें एक वर्णको घुमाता है, उसे दर्पणबन्ध कहते हैं ॥१६८३।। पट्टकबन्धका स्वरूप
जिस रचनाविशेषमें ऊपर और नीचे क्रमश: तीन चरणोंको लिखकर अन्तिम चरणको चारों कोणोंमें लीन कर देते हैं, वह रचना पट्टकबन्ध कहलाती है ॥१६९॥ उदाहरण
ज्ञानादिगुणोंके स्वामी, स्त्रीसे निर्भय-विषय और कषायके जयो-संयमी अनन्तनाथ तीर्थंकरको नमस्कार करता हूँ। जिनकी मीनके समान नेत्रवाली मुक्तिरमा कान्ता है, और जिन्होंने जन्म, मरण और जराके आतंकको जीत लिया है । उन अनन्तनाथका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ। अथवा जिस महापुरुषको मीनके समान नयनवाली, कलाकुशला और परमात्माके ध्यानसे रहित कान्ता नहीं है, जिन्होंने आतंकको जीत लिया है, जो बुद्धिशाली हैं और कान्ताके भयसे रहित हैं, उन अनन्तनाथकी शरण में जाता हूँ ॥१७०१॥
'यस्य'-जिसकी 'मीनाक्षी'-कलाकुशल अथवा मीनके समान नेत्रवालो, 'के'-परमात्मामें धी बुद्धि है जिसकी; 'कधीकता'-परमात्मभावनारहित, ‘कान्ता'-प्रिया, नहीं है । ‘एरमि'-उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।
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