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अलंकारचिन्तामणिः
[२११८२३षडरं चक्रमालिख्यारमध्ये स्थापयेत्कविः । त्रीन् पादान्नेमिमध्ये तु चतुर्थे चक्रवृत्तके ॥१८२३॥
अतिशयिताकारोऽनघो भवान्तकः। तपस्विनि श्रियं कुर्वन् तत्त्वेष्वचिन्त्यधियां मुनीनामीशो जिष्णुनेन्द्रेण ऊतं पालितं विशदं यशोजलं यस्य सः। अव समन्तात् शमो यस्य सः । त्वं मुक्त्यलंकारे मां स्थापय । अत्र एकाद्यङ्कक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतचिन्तामणिः भरतयशसीति गम्यते । एवं प्रकारान्तरेण किंचित् किंचिद्विशेषविशिष्टं बहुधा चक्रवृन्तं ज्ञेयम् ।
द्वे द्वे पादे च कण्ठे च गर्भेऽष्टो विलिखेत्कविः । पार्श्वयोरन्त्यपादं तु लिखेत् भृङ्गारबन्धके ॥१८३।। भासते हंसविद्योततद्योगतेजसा सभा । साऽज ते गवि संहन्तेनोऽतो मल्लिरवैनसाम् ॥१८४३।।
हंसकान्तिवच्छोभमान प्रसिद्धध्यानजनितवाक्यदीप्त्या अज अनुत्पद्यमान । गवि भुवि । एनसां पापानाम् । संहन्ता विनाशकः ।
तपस्वियोंपर बुद्धि रखते हैं-तपस्वि-जनोंका पूर्ण ध्यान रखते हैं, आपको मुनियोंका स्वामित्व प्राप्त है अर्थात् आप मुनियोंके स्वामी हैं, स्तुतियोग्य विस्तृत वाणोसे सहित हैं, आपका निर्मल कीतिरूप जल इन्द्रके द्वारा सुरक्षित है, आप सब ओरसे शान्त हैं तथा आपकी विशाल बुद्धि निरन्तर बढ़ती रहती है। अतः आप मुझे मोक्ष नामक कल्याणमें स्थिर कीजिए ॥१८१३॥ चक्रवृत्तकका स्वरूप
कवि चक्रवृत्तकमें छह मोरवाले चक्रको लिखकर अरोंके बीचमें तीन पादोंको लिखे और चतुर्थपादको नेमि-चक्रधारामें लिखे ॥१८२३॥
शृंगारबन्धका स्वरूप
भंगारबन्धमें कवि पाद तथा कण्ठमें दो-दो अक्षरोंको, मध्यमें आठ अक्षरोंको और दोनों ओर अन्तिम पादका न्यास करे ॥१८३३।। उदाहरण
हे सूर्यके समान छविमान ! हे अज-अनुत्पद्यमान ! पृथिवीमें तुम्हारो समवशरण सभा प्रसिद्ध है। ध्यान द्वारा तुमने समस्त पापोंको नष्ट कर दिया है । अतः हे मल्लिनाथ स्वामी, आप हमारी रक्षा करें ॥१८४६।।
१. तत्वेष्वाचिन्त्यधीया -ख। २. विशदयशोजलम् -क। ३. संहन्तेनातो -ख । ४. प्रसिद्धध्यानजनितवाक्यप्रदीप्त्या -ख ।
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