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भावे ।
अलंकार चिन्तामणिः
भावे मूढत्रयाढ्येन लोकेन स्तूयसे सदा ।
न स्तूयसे महाशास्त्रविदा गम्भीरया गिरा ।। १८९३॥ संबोधनगोपितं भवस्येश्वरस्य अपत्यं भाविः षण्मुखः तस्य संबोधनं
इत्यलंकारचिन्तामणौ चित्रालंकारप्ररूपणो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥ २ ॥
[ २।१८९३ -
जीतनेवाले हो, मोक्षमार्गके नेता हो, नित्य या शाश्वत हो और देवसमूहके उपदेशक हो, हम तुम्हें नमस्कार करते हैं ।। १८८३ ॥
हारबन्ध-
हे कार्तिकेय ! तुम सदा तीन मूढताओंसे युक्त मिथ्यादृष्टि संसारी व्यक्तियों के द्वारा स्तुत्य हो, पर जिनागमके ज्ञाताओं द्वारा तुम्हारी स्तुति नहीं की जाती है ॥ १८९३ ॥
यहाँ भावे सप्तम्यन्त पाठ में संबोधन गूढ है ।
अलंकार चिन्तामणिमें चित्रालंकारप्ररूपण नामक द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ ||२॥
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