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तृतीयः परिच्छेदः सुकल्याणोऽसुकल्याणो जिनः 'पायादसंगरिः। असुषु प्राणेषु रक्षण दक्षध्वनिः । कल्यो नोरोगदक्षयोरित्यभिधानात् । गैमोमाभोजराभीरोऽजराभीरोः पुरोरगुम् ॥१५॥ जनानां सबन्धुः सदा यस्य वाणी। विभानूयमाना विभानूयमाना ॥१६।। सनाभेयस्सनाभेयः सदापायात् सदापायात्॥ (केवलं ख प्रती इयं पङ्क्तिः ) सनाभेयः नित्यं भयरहितः सदा बोधेन । षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु इति धातोगत्यर्थे क्विप विधानात् । महादभ्रमध्ये प्रिये पश्य चन्द्र, महादभ्रमध्ये तवास्यायमानम् । सुबिम्बाधरेऽस्या नितम्बाम्बरेण, गिरिस्थालता वा नितम्बाम्बरेण ॥१८॥ अम्बरे सम्भूत आम्बरो मेघः।
कामदेवके शत्रु-राग-द्वेष-मोहको पराजित करनेवाले कल्याणकारी एवं रक्षणकार्य में प्रवीण, जन्म-जरा-मरणरूप रोग रहित जिनेन्द्र भगवान् रक्षा करें ॥१४॥
असु शब्द प्राणरक्षा अर्थमें प्रयुक्त है और 'कल्पः' का अर्थ नीरोग एवं दक्ष है। 'सुकल्याण-सुकल्याण आवृत्ति होने से यमक है।
हे भराभीरु ! जन्म-मरण-जरासे भयाक्रान्त ! जराके भयसे युक्त-जन्म-मरणजरा रहित, लक्ष्मीयुक्त आदि तीर्थकरकी शरणमें जाओ ॥१५॥
यहाँ 'जराभीरोः' 'जराभीरोः' में पुनरावृत्ति होनेसे पादांश यमक है।
जिसको वाणो-दिव्यध्वनि, शोभायुक्त हो, विशिष्ट सूर्य के समान ज्ञानान्धकार का विनाश करती है, वह जनोंके लिए लोगोंके लिए सदा बन्धु है ॥१६॥
यहाँ तृतीय और चतुर्थपादमें आवृत्ति होनेसे पुच्छयमक है ।
सदा भयरहित वह नाभिपुत्र भगवान् ऋषभदेव अपने ज्ञानद्वारा-धर्मोपदेश द्वारा जनताकी सदा रक्षा करें ॥१७॥
'सनाभेयः' = नित्यभय रहित, सदा बोधसे । षद्लृधातु विशरण, गति और अवसादन अर्थमें व्यवहृत होती हैं। अतः गत्यर्थक धातुमें क्विप् प्रत्यय करने पर निष्पत्ति होती है।
'सनाभेयः' की पुनरावृत्ति और 'सदापायात्'की पुनरावृत्ति होनेसे युग्मक यमक है।
कृशतर मध्यभागवालो--क्षीणकटि प्रदेशवाली प्रिये ! आकाशके बीच तुम अपने मुखके सादृश्यका आचरण करते हुए चन्द्रको आनन्दपूर्वक देखो । हे सुन्दर बिम्बफल-त्रिकोल लताफलके समान रक्त अधरवाली, वस्त्राच्छादित नितम्बवाली प्रिये ! तुम पर्वतके मध्यभागमें मेघसे युक्त, पर्वत पर स्थित लताके समान प्रतीत होती हो ॥१८॥ १. पायादनअङ्गारिः-क । २. गमोमाभोजराभीरोजाराभीरो:-क । ३. विभया शोभया नयमाना । प्रथमप्रती पादभागे । ४. विशिष्ट सूर्य इव आचरन्ती । प्रथम प्रती पादभागे।
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