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द्वितीयः परिच्छेदः
'चतुष्कबन्धसन्धी तु भ्रामयेदाद्यवृन्तयोः ।
द्वे चैकं वृन्तमध्ये वा तालवृन्तप्रबन्धके ।। १७१३ ।। जिन त्वयि जना भान्ति सदा सति नुतिप्रियाः । शीलजालमताः सर्वेऽतो नः पाहि सदाऽमल || १७२३॥ सति प्रशस्ते त्वयि ।
-१७४३ ]
प्रतियन्त्रं चतुष्कं द्वे द्वे चोर्ध्वाधोऽन्तरे तथा । मध्येऽप्येकं लिखित्वैवं निःसालं बन्धमुन्नयेत् ॥ १७३३।।
महानन्द दयादान नतराज जरान्तक ।
जनानन्द दमाधार रक्ष मामममाक्षकम् || १७४३ ॥ अमं भक्तिमन्तम् । आक्षकं ते स्तुतौ व्यापकम् ।
तालवृन्तका स्वरूप
जिस रचनाविशेष में आदि और अन्तके वृन्तों तथा चतुष्कोण सन्धिमें एवं वृन्तके मध्य में दो-दो बार एक-एक अक्षरका भ्रमण कराते हैं, उसे तालवृन्त प्रबन्धक कहते हैं ॥१७१३॥
उदाहरण
हे विमलनाथ जिनेश्वर ! आपमें सर्वदा नम्रीभूत, शोलयुक्त भक्तजन सुशोभित होते हैं अर्थात् आपके निकट में - समवशरणसभा में शीलगुणयुक्त भक्तजन, नम्रीभूत होने के कारण सुशोभित होते हैं । अतः हे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्ममलसे रहित जिनेश्वर, आप लोगोंकी रक्षा कीजिए || १७२३ ॥
निःसालबन्धका स्वरूप-
चौकोर प्रत्येक चतुष्कोणमें ऊपर, नीचे और अन्तर- - व्यवहित में दो-दो और मध्य में एक-एक अक्षरको लिखनेसे निःसाल नामक बन्धकी रचना होती है ।। १७३३ ।।
उदाहरण
हे 'महानन्द' ! - महान् आनन्द विशिष्ट —— अनन्त सुख या आनन्द से परिपूर्ण; 'दयादान' --- दया प्रदान करने वाले —— परमोदारिक शरीर के कारण समस्त जीव हिंसासे रहित; 'नतराज' – विनम्र प्रवर - राग-द्वेष - मोहरहित; 'वृद्धताहीन' — जरारहित एवं मनुष्यों को ज्ञानोपदेश द्वारा आनन्दित करनेवाले प्रभो ! मुझ दीन, संयमी और प्रभुभक्ति से परिपूर्ण आपकी स्तुति करनेवालेकी रक्षा कीजिए ॥१७४३ ॥
‘अमम्’– भक्तिमान्की — भक्त की; 'आक्षकम्' – तुम्हारी स्तुति में संलग्न |
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१. चतुष्कदण्डसन्ध
६.१
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