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८८ अलंकारचिन्तामणिः
[२।१६६त्रिषु पादेषु सन्तीति यत: ततो गूढद्वितीयपादः सर्वैः प्रकारैः पाठः समान इति सर्वतोभद्रः । पारावारस्य समुद्रस्य रवो ध्वनिः पारावाररवः पारावाररवम् इति गच्छतोति पारावाररवार: तस्य संबोधनं हे पारावाररवार समुद्रध्वनिसदशवाणीक । न विद्यते पारम् अवसानं यस्याः असावपारा अलब्धपर्यन्ता। क्षमां पृथ्वीम् अक्ष्णोति प्राप्नोतीति क्षमाक्षः ज्ञानव्याप्तसर्वमेयः तस्य संबोधनं हे क्षमाक्ष क्षमा सहिष्णुता सामथ्यं वा । अक्षरा अविनश्वरा। वामानां पापानां अमन खनक। अम प्रीणय । अव शोभस्व। आरक्ष पालय। मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् (?) हे ऋद्ध वृद्ध । ऋद्धवृद्धम् । न क्षरतीत्यक्षर: तस्य संबोधनं हे अक्षर । समुदायार्थ: । हे जिननाथ पारावाररवार क्षमाक्ष वामानाममन ऋद्ध अक्षर ते क्षमा अक्षरा अपारा, यतः ततः 'मा ऋद्धम् अम अव आरक्ष । अतिभाक्तिकस्य वचनमेतत् ।
वर्णभार्यातिनन्द्याववन्द्यानन्त सदारव ।। वरदातिनतार्याव वर्यातान्तसभार्णव ॥१६६।।
यमक है । तालव्य-इ वर्ण, चवर्ग, य और श वर्णो के न होनेसे 'अतालुव्यंजन' है । अवर्णस्वरके होनेसे 'अवर्णस्वर' है । प्रयम, तृतीय और चतुर्थपादमें द्वितीयपादके गुप्त होनेसे 'गूढद्वितीयपाद' है । सब ओरसे एक समान पढ़े जानेके कारण सर्वतोभद्र तथा क्रम और विपरीत क्रमसे पढ़े जाने के कारण गत-प्रत्यागत और अर्धभ्रमरूप होनेसे 'अर्धभ्रम' इस प्रकार आठ प्रकार का चित्रालंकार है।
. 'पारावाररवः'- समुद्रको गर्जनाके समान गम्भीर दिव्यध्वनि; 'अपारा'अलब्धपर्यन्त-अपार; 'क्षमाक्ष'-समस्त पदार्थोके जाननेवाले अथवा समस्त सामर्थ्ययुक्त; 'अक्षरा'-क्षयरहित; 'वामानामन'-पापोंके नाश करनेवाले; 'अम'-प्रसन्न कोजिए; 'अव'-शोभित कीजिए; 'आरक्ष'- रक्षा कीजिए; 'मा'-मुशको; ऋद्ध'वृद्ध । समुदाय अर्थ पूर्वोक्त है । यह अत्यन्तभक्त का वचन है । गूढ वेष्टपादचक्रका उदाहरण
हे अनुपम सौन्दर्यसे शोभमान ! हे अष्टमहाप्रातिहार्यरूप विभूतिसे सम्पन्न ! हे सुर-असुरों द्वारा वन्दनीय ! हे उत्तम दिव्यध्वनिसे सहित ! हे इच्छित पदार्थों के देनेवाले ! हे अत्यन्त नम्र साधुपुरुषोंके रक्षक ! हे श्रेष्ठ ! हे क्षोभ रहित ! समवशरणसमुद्रसे संयुक्त ! अनन्तनाथ जिनेन्द्र ! मेरी रक्षा कीजिए-मुझे संसारके दुःखोंसे बचाइए ॥१६६३॥
इस पद्यमें स्वेष्ट-इच्छित-~पाद शेष तीन पादोंमें गूढ है तथा चक्रबद्ध चित्रालंकार भी है।
१. मां -क ।
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