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अलंकारचिन्तामणिः कादिवर्णचतुष्काच्छोरपकीर्तिश्चकारतः । छकारात्प्रीतिसौख्ये द्वे मित्रलाभो जकारतः ।।८।। झाद्भीमृत्यू ततः खेदष्ठादुःखं शोभनं तु डात् । ढोऽशो भादो भ्रमो णात्तु सुखं तात्थाद्रणं दधौ ॥१०॥ सुखदो नात्प्रतापो भी: सुखान्तक्लेशदाहदः॥ पवर्गो याद्रमा रेफादाहो व्यसनदौ लवौ ॥११॥ शषाभ्यां सुखखेदौ च सही च सुखदाहदौ । लस्तु व्यसनदः क्षस्तु सर्ववृद्धिप्रदो भवेत् ॥९२।। एवं प्रत्येकमुक्तास्ते वर्णास्सत्यफलप्रदाः। त्याज्यः स्याद्वर्णसंयोगस्तैलकर्पूरयोगवत् ॥१३॥ प्रत्येकं तु गणा ज्ञेयास्सदसत्फलदा यथा। याद्धनं राच्चभीदाही तः शून्यफलदो मतः ।।९।।
काव्यादिमें व्यंजनवर्गों के प्रयोगका फल
काव्यके प्रारम्भमें क, ख, ग, घ के रहनेसे लक्ष्मी; चकार रहनेसे अयश, छकार रहनेसे प्रीति और सुख दोनोंको प्राप्ति तथा जकारके रहने से मित्रलाभ होता है ॥८९।।
काव्यादिमें झ के रहनेसे भय तथा, त के रहनेसे कष्ट; ठ के रहनेसे दुःख; ड के रहनेसे शुभ फल; ढ के रहनेसे शोभाहीनता; द के रहने से भ्रान्ति; ण के रहने से सुख; त और थ के रहनेसे युद्ध एवं द और ध के रहनेसे सुखको प्राप्ति होती है ॥ ९॥
काव्यके प्रारम्भमें न के रहनेसे प्रतापको वृद्धि; पवर्ग के रहनेसे भय, सुखको समाप्ति, कष्ट और जलन; य के होनेसे लक्ष्मीको प्राप्ति; रेफके रहनेसे जलन एवं ल और व के रहनेसे अनेक प्रकारकी आपत्तियोंकी उपलब्धि होती है ॥ ९१ ।।
काव्यारम्भमें श के रहनेसे सुख, ष से कष्ट, स के रहनेसे सुख, ह से जलन, ल से नाना प्रकारके क्लेश और क्ष के रहने से सभी प्रकारको वृद्धि होती है ॥ ९२ ॥
इस प्रकार सत्य फलके प्रदान करनेवाले सभी वर्गों का विवेचन किया गया है। तैल और कपूर के सम्मिश्रण के समान अशुभाक्षरों का संयोग काव्यादि में सर्वथा त्याज्य है ॥९३ ॥ गोंके प्रयोग और उनका फलादेश
अभीष्ट और अनिष्टफल देनेवाले प्रत्येक गणके फलको अवगत कर लेना चाहिए। काव्यारम्भमें यगणका प्रयोग होने से धन की प्राप्ति , रगणके रहनेसे भय और जलन तथा तगणके होनेसे शून्य फलको प्राप्ति होती है अर्थात् सुख और दुःख प्राप्त नहीं होते, सर्वथा फलाभाव रहता है ।। ९४ ॥
१. चतुष्कतोऽकी तिः-क। २. टतः-ख । ३. भिः-ख ।
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