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७० अलंकारचिन्तामणिः
[२११३४तुक् । शुक्। रुक् । अन्तःगर्भे । आद्यूनं औदरिकं पृथगाद्यैर्व्यञ्जनै भिन्नप्रथमव्यञ्जनः।
द्वोपं नन्दीश्वरं देवा मन्दरागं च सेवितुम् । सुदन्तोन्द्रैः समं यान्ति सुन्दरीभिः समुत्सुकाः ॥१३४॥
बिन्दुमान् । सुदति भोः कान्ते । सुदन्तीन्द्ररिति सबिन्दुकं पाठयम् उच्चारणकाले बिन्दुना संयोज्यम्। अभिप्रायकथने त्यजेत् । उच्चारणकाले विद्यमानबिन्दुत्वात् बिन्दुमानित्युक्तम् ।
असबिन्दुभिराभान्ति मुखैरमरवारणाः। घटाघटनया व्योम्नि विचरन्तस्त्रिधा 'स्रुतः ॥१३५।।
उत्तर-तुक्-हमारे गर्भ में पुत्र निवास करता है। हमारे समीप शुक्-शोच या शोक नहीं है। पेटू-अधिक भोजन करने वालेको रुक-रोग मार डालता है।
__उक्त प्रश्नोंमें आदि व्यंजन तु, शु और रु भिन्न-भिन्न हैं, पर अन्त्य व्यंजन क् तीनोंमें समान है।
हे सुन्दर दांतोंवाली देवि! देखो ये देव इन्द्रोंके साथ अपनी-अपनी देवांगनाओंको साथ लिये हुए बड़े उत्सुक होकर नन्दीश्वरद्वीप और मन्दराचल पर्वतपर क्रीडा करनेके लिए जा रहे हैं ॥ १३४३ ॥
यह पद्य बिन्दुमान् है अर्थात् 'सुदतीन्द्रः' के स्थानपर 'सुदन्तीन्द्रः' बिन्दुयुक्त दकार पाठमें दिया गया है। इसी प्रकार 'नदीश्वरम्' के स्थानपर बिन्दु रखकर 'नन्दीश्वरम्' कर दिया गया है। 'मदरागम्' के स्थानपर बिन्दु रखकर 'मंदरागम्' लिखा गया है । अतएव बिन्दुच्युत होनेपर इस पद्यका अर्थ यह होगा
हे देवि ! ये देव दन्ती--बड़े-बड़े गजोंपर आरूढ होकर अपनी-अपनी देवांगनाओंको साथ लिये हुए 'मदरागं सेवितुम्' क्रोडा करनेके लिए उत्सुक होकर द्वीप और नदीश्वर–समुद्रको जा रहे हैं । यहाँ उच्चारण समयमें बिन्दु जोड़ लेना चाहिए और अर्थ करते समय उसको छोड़ देना चाहिए। उच्चारणकालमें बिन्दुके विद्यमान रहनेसे यह बिन्दुमान्का उदाहरण है ।
हे देवि ! जिनके दो कपोल और सूंड़ इस प्रकार तीन स्थानोंसे मद झर रहा है तथा जो मेघघटाके समान आकाशमें इधर-उधर विचरण कर रहे हैं, ऐसे ये देवोंके हाथो, जिनपर अनेक बिन्दु शोभित हैं, ऐसे ये देवगज अपने मुखोंसे बड़े सुन्दर लग रहे हैं ॥१३५३॥
१. स्नुतः -ख ।
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